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मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

संकट मोचन हनुमानाष्टक

अंजनी गर्भ संभूतो, वायु पुत्रो महाबल:।
कुमारो ब्रह्मचारी च हनुमान प्रसिद्धिताम्।।
मंगल-मूरति मारुत नन्दन। सकल अमंगल मूल निकन्दन।।
पवन-तनय-संतन हितकारी। हृदय विराजत अवध बिहारी।।
मातु पिता-गुरु गनपति सारद। शिव समेत शंभु शुक नारद।।
चरन बंदि बिनवों सब काहू। देव राजपद नेह निबाहू।।
बंदै राम-लखन-बैदेही। जे तुलसी के परम सनेही।।
संकट मोचक हनुमान
बाल समय रवि भक्षि लियो, तब तीनहुं लोक भयो अंधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को, यह संकट काहु सों जात न टारो।।
देवन आनि करी विनती तब, छांंिड़ दियो रवि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में, कपि संकटमोचन नाम तिहारो।।
बालि की त्रास कपीस बसै गिरि, जात महाप्रभु पंथ निहारौ।
चौंकि महामुनि शाप दियो तब, चाहिए कौन विचार विचारो।।
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु, सो तुम दास के शोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में, कपि संकटमोचन नाम तिहारो।।
अंगद के संग लेन गये सिय, खोज कपीस ये बैन उचारो।
जीवत ना बचिहों हमसों, जु बिना सुधि लाये यहां पगुधारो।।
हेरि थके तट सिन्धु सबै तब, लाय सिया, सुधि प्राण उबारो।
को नहिं जानत है जग में, कपि संकटमोचन नाम तिहारो।।
रावन त्रास दई सिय की, सब राक्षसि सों कहि शोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु, जाय महा रजनीचर मारो।।
चाहत सीय अशोक सों आगि, सो दे प्रभु मुद्रिका शोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में, कपि संकटमोचन नाम तिहारो।।
बान लग्यो उर लछिमन के तब, प्रान तजे सुत रावन मारो।
ले गृह वैद्य सुषेन समेत, तबै गिरि द्रोण सुबीर उपारो।।
आन संजीवन हाथ दई तब, लछिमन के तुम प्रान उबारो।
को नहिं जानत है जग में, कपि संकटमोचन नाम तिहारो।।
रावन युद्ध अजान कियो तब, नाग की फाँस सबै सिर डारौ।
श्री रघुनाथ समेत सबै दल, मोह भयौ यह संकट भारो।।
आनि खगेश तबै हनुमान जी, बन्धन काटि सो त्रास निवारो।
को नहिं जानत है जग में, कपि संकटमोचन नाम तिहारो।।
बंधु समेत जबै अहिरावन, लै रघुनाथ पताल सिधारो।
देविहिं पूजि भली विधि सों, बलि देहुं सबै मिलि मंत्र विचारो।।
जाय सहाय भयो तब ही, अहिरावन सैन्य समेत संहारो।
को नहिं जानत है जग में, कपि संकटमोचन नाम तिहारो।।
काज किये बड़ देवन के तुम, वीर महाप्रभु देखि विचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को, जो तुमसौं नहिं जात है टारो।।
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु, जो कुछ संकट होय हमारो।
को नहिं जानत है जग में, कपि संकटमोचन नाम तिहारो।।
देहा
लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर।
    वज्र देह दानव  दलन, जय जय जय कपि सूर।।

शनि दोष निवारक शनि स्तोत्र महाराज दशरथ कृत.

दशरथ कृत शनि स्तोत्र


नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ।।१।।
    नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
    नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।२।।
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ  वै नम:।
नमो दीर्घायशुष्काय कालदष्ट्र नमोऽस्तुते।।३।।
    नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम: ।
    नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।।४।।
नमस्ते सर्वभक्षाय वलीमुखायनमोऽस्तुते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करे भयदाय च ।।५।।
    अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तुते ।
    नमो मन्दगते तुभ्यं निरिण्याय नमोऽस्तुते ।।६।।
तपसा दग्धदेहाय नित्यं  योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ।।७।।
    ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज  सूनवे ।
    तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ।।८।।
देवासुरमनुष्याश्च  सिद्घविद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशंयान्ति समूलत:।।९।।
    प्रसाद कुरु  मे  देव  वाराहोऽहमुपागत ।
       एवं स्तुतस्तद  सौरिग्र्रहराजो महाबल: ।।१०।।





श्री शनि चालीसा

श्री शनि चालीसा 
                
                      ॥दोहा॥
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल।
दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥
जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज।
करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥
जयति जयति शनिदेव दयाला। करत सदा भक्तन प्रतिपाला॥
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै। माथे रतन मुकुट छबि छाजै॥
परम विशाल मनोहर भाला। टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके। हिय माल मुक्तन मणि दमके॥1॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा। पल बिच करैं अरिहिं संहारा॥
पिंगल, कृष्ो, छाया नन्दन। यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन॥
सौरी, मन्द, शनी, दश नामा। भानु पुत्र पूजहिं सब कामा॥
जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं। रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं॥2॥
पर्वतहू तृण होई निहारत। तृणहू को पर्वत करि डारत॥
राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो। कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो॥
बनहूँ में मृग कपट दिखाई। मातु जानकी गई चुराई॥
लखनहिं शक्ति विकल करिडारा। मचिगा दल में हाहाकारा॥3॥
रावण की गतिमति बौराई। रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई॥
दियो कीट करि कंचन लंका। बजि बजरंग बीर की डंका॥
नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा। चित्र मयूर निगलि गै हारा॥
हार नौलखा लाग्यो चोरी। हाथ पैर डरवाय तोरी॥4॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो। तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो॥
विनय राग दीपक महं कीन्हयों। तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों॥
हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी। आपहुं भरे डोम घर पानी॥
तैसे नल पर दशा सिरानी। भूंजीमीन कूद गई पानी॥5॥
श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई। पारवती को सती कराई॥
तनिक विलोकत ही करि रीसा। नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी। बची द्रौपदी होति उघारी॥
कौरव के भी गति मति मारयो। युद्ध महाभारत करि डारयो॥6॥
रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला। लेकर कूदि परयो पाताला॥
शेष देवलखि विनती लाई। रवि को मुख ते दियो छुड़ाई॥
वाहन प्रभु के सात सजाना। जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना॥
जम्बुक सिंह आदि नख धारी।सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥7॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं। हय ते सुख सम्पति उपजावैं॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा। सिंह सिद्धकर राज समाजा॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै। मृग दे कष्ट प्राण संहारै॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी। चोरी आदि होय डर भारी॥8॥
तैसहि चारि चरण यह नामा। स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं। धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं॥
समता ताम्र रजत शुभकारी। स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै। कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥9॥
अद्भुत नाथ दिखावैं लीला। करैं शत्रु के नशि बलि ढीला॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई। विधिवत शनि ग्रह शांति कराई॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत। दीप दान दै बहु सुख पावत॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा। शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा॥10॥
॥दोहा॥
पाठ शनिश्चर देव को, की हों भक्त तैयार।
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार॥

कोई कालसर्पयोग नहीं होता !

        थोड़ा धैर्य  धारण करके पढ़ें, बात कड़वी है



     आजकल कालसर्प का बहुत ही भय व्याप्त है.जबकि कालसर्प कोई योग नहीं है.ना किसी ग्रन्थ में और नहीं कहीं इसका जिक्र है न किसी पुराण नही किसी संहिता भृगु वशिष्ठ रावण वाराहमिहिर बृहस्पति सभी ज्योतिषीय विद्वान थे सबने अनेक योगों का वर्णन किया पर कालसर्पयोग का क्यु नहीं ,
              क्या उस समय सभी ग्रह राहु केतु के बीच नहीं आते थे, किसी महर्षि ने कालसर्प योग का जिक्र नहीं किया  
              कुछ वर्षों पहले एक राजस्थान के प्रसिद्घ ज्योतिषी व तांत्रिक , जिनहोंने अपना महिमामण्डन में स्वयं को अवतार घोषित कर दिया , उनने इस योग की रचना करदी, और कुछ इनके पीछे कुछ चल पड़े और आज १४४ प्रकार के कालसर्प बन भी गए , और कुछ आजके ज्योतिषीयों ने भी अपनी पुस्तकों में बढ़ा चढ़ा कर लिख दिया , आलम यह है कि १० ज्योतिष की पुस्तक लें एक ही ग्हयोग का विभिन्न फल आपको मिलेगा.
  आज ज्योतिषीयों को लोग लुटेरा कहते हैं  , ऐसा नहीं कि उस समय इस योग का विरोध नहीं हुआ बहुत विरोध हुआ , पर "आपकी उन्नति में बाधा" यह इतना भयवाचक है कि किसीने उस विरोध पर ध्यान नहीं दिया,


आज शनि की शाड़ेसाती से लोग डरें न डरें ( जिसका प्रभाव पुराणों में विस्तार पूर्वक है , तुसीदास जी ने भी कवितावली में वर्णन किया है)
जिससे डरना चाहिए चाहिए
    पर कालसर्प योग हर चौथे पाँचवें व्यक्ति के डरका कारण बन गया. जिसका कोई प्रमाण ही नहीं,

    लोग कहेंगे सरप साप लिखा है

.कहा गया "सर्पशाप" का वर्णन तो है पुराणों में कहीं वहीं तो कालसर्प योग नहीं ?
     नहीं सर्पशाप योग काल सर्प से पूरी तरह भिन्न है.

हाँ
      सर्पशाप का हर जगह वर्णन है. पुत्र कारक गुरू अगर राहू से पीड़ित,या युति से है,तो चांडाल तथा सर्पशाप योग बनता है.जिसका दुष्परिणाम देखने में आते है. पुत्र कारक गुरू ,राहू से युक्त हो तथा शनि से पंचम पीड़ित या दृष्टगत है तो संतान उत्पत्ति में बाधा आती है. लग्नेश राहू से युत हो तो बाधा है . पंचमेश मंगल से युत हो तथा राहू गुरू से दृष्ट होने पर संतान बाधा होती है. कर्क,धनु लग्न में पंचम भाव में राहू बुध दृष्ट या युति से है तो संतान बाधा उत्पन्न होती है. पंचम में राहू हो और मंगल उसे ४-८- की दृष्टी से देखे तो बाधा आती है.ग्रन्थों में कहा भी गया की, "सुते राहौ भौमदृष्टे सर्पशापात सुतक्षयः" पंचम में शनि हो पंचमेश राहू से युत हो,तथा चन्द्रमा उसे देखता हो भी संतान बाधा उत्पन्न हो जाती है. यमे सुते चन्द्र दृष्टे सुतेशे राहुयुते सर्पशापत: . यह तो सर्व विदित है की राहू गुरू की युति या सम्बन्ध अभाव का कारक है चाहे विवाह हो या फिर संतान की उत्पत्ति.इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है.गुरू जहां है खराब है जबकि राहू जहां है अच्छा है.और दृष्टी में गुरू अच्छा है तो राहू खराब है यानिकी गुरू के फल को राहू खराब कर देता है. हालांकि अभी और भी कारण हैं
                           .उसकी फिर कभी चर्चा करूँगा........ पिछली सदी के प्रसिद्ध ज्योतिषी स्वर्गीय डॉक्टर बीवी रमन, ने कालसर्प योग को सिरे से नकार दिया था। वह 60 वर्ष तक एस्ट्रोलॉजिकल-मैगजीन के संपादक रहे थे। वहीं (ज्योतिषी केएन राव के अनुसार* भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, इंग्लैंड की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री रहीं मार्गरेट थेचर, अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश को काल सर्प दोष था, लेकिन इन्होंने सफलता के नए सोपान अर्जित किए। ) ऐसे अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियों की कुंडलियों में राहु-केतु के मध्य में सभी ग्रह थे, जिसे कुछ ज्योतिषी कालसर्प योग की मानते देते हैं, किन्तु फिर भी वह सब अपने जीवन में बड़ी उपलब्धियों को पाने में सफल हुए। .

 प्रश्न उठा ,

महाराजा विक्रमादित्य, महाराजा हरिश्चन्द्र, महाराजा नल इत्यादि महापुरुषों को अपने जीवन काल में कालसर्प दोष के प्रभाव को सहना पड़ा था...??? यदि नहीं तो फिर उनके द्वारा सर्वसमर्थ होने पर भी क्यों कठिन यातनाये भोगनी पड़ी..??
   इसका उत्तर है    - शनि की दशा

शनि चालीसा , का अंश देखते हैं
     नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा। चित्र मयूर निगलि गै हारा॥
          हार नौलखा लाग्यो चोरी। हाथ पैर डरवाय तोरी॥4॥
     भारी दशा निकृष्ट दिखायो। तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो॥        विनय राग दीपक महं कीन्हयों। तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों॥
 हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी। आपहुं भरे डोम घर पानी॥ तैसे नल पर दशा सिरानी। भूंजीमीन कूद गई पानी॥5॥
  इन सबके दुख का कारण शनि की साड़ेेसाती है
 
यदि इस समय कालसर्प वाली कुण्डली की गड़ना की जाये तो फिर एक शदी में जन्में हर चौथे व्यक्ति की कुण्डली में कालसर्प दोष मिलेगा 1978 में पूना के ज्योतिष के विद्वान पं. किसन लाल शर्मा ने ही सबसे पहले कालसर्प योग के बारे में "कालसर्प योग" पर कालसर्प योग नामक पुस्तक लिखी थी, और उसी के बाद इस कालसर्प दोष की प्रथा शुरू हुई । सन 1978 के पहले कालसर्प योग, दोष का कोई अस्तित्व ही नहीं था । ,    
     जानता हूँ कुछ ज्योतिषी भाइयों को क्रोध भी आ रहा होगा, निवेदन है कि यदि आपके पास प्रमाण है तो कृपया पुराण या संहिता के नाम के साथ श्लोक संख्या या फिर प्रमाणित चित्र भी दें , आपका इस बालक पर अनुग्रह होगा ! 
     क्षमा चाहता हूँ ! 
                         धन्यवाद ! 
Update 11/08/18 ,,देखिये अभी सदी के दो प्रसिद्ध ज्योतिषी क्या कहते हैं ......

अब बोलिये......

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