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शनिवार, 23 जुलाई 2022

मंगल दोष

प्रायः यदि मंगल बृहस्पति से युक्त अथवा दृष्ट हो तो यह घोषणा कर दी जाती है कि मंगल-दोष समाप्त हो गया । किन्तु यह विचार सत्य से नितान्त परे है। आघु निक शोध कार्यों द्वारा सिद्ध हो चुका है एवं मेरे अनुभव द्वारा भी प्रमाणित हो चुका है कि मंगल के साथ बृहस्पति की संयुति कुज-दोष को अनेक आयामों में परिवर्तित कर देती है । इस सन्दर्भ में कल्याणवर्मा की सारावली का गम्भीरतापूर्वक अनुशीलन करना चाहिए। अतएव यदि मंगल १, २, ४, ७, ८ एवं १२वें भाव में संस्थित हो एवं बृहस्पति से युक्त हो, अथवा बृहस्पति और मंगल एक दूसरे से सप्तमस्य हों तो कु-दोष सहस्राधिक परिवर्द्धित मानना चाहिए ।

यदि शुक्र, मंगल और बृहस्पति सहसंस्थित हों, परस्पर सप्तमस्थ हों, परस्पर केन्द्र गत हों तो कुज-दोष अत्यन्त तीक्ष्ण हो जाता है।

उपर्युक्त दोनों स्थितियों में न्यायोचित होगा कि मंगल दोष के निरस्तीकरण के लिए वर कन्या के जन्मांगों में एक ही प्रवृत्ति का कुज-दोष हो । यदि कन्या की कुण्डली में बृहस्पति के प्रभाव-स्वरूप कुज दोष की तीक्ष्णता परिवर्तित हो रही हो तोवर के जन्मांग में भी ऐसा ही संयोग होना चाहिए । अन्यथा विघटनात्मक स्थितियाँ समुत्पन्न हो जाती हैं।

यदि कन्या के जन्मांग में मंगल अष्टम भावस्थ हो तो वर के जन्मांग में मंगल सप्तमभावस्थ नहीं होना चाहिए । प्रायः इस स्थिति में ज्योतिषी मंगल दोष विनष्ट होने का अनुमान कर लेते हैं । किन्तु दोनों जन्मांगों में कुज दोष उपस्थित होने का सिद्धान्त यहाँ व्यवहार्य नहीं है । वर की कुण्डली का सप्तमभावस्थ मंगल पत्नी के स्वास्थ्य के निमित्त विपरीत है एवं कन्या की कुण्डली का अष्टमभावस्थ मंगल उसके अपने स्वास्थ्य के लिए विध्वंसक है। इस प्रवृत्ति के जन्मांगों की तुलना करते समय विवाह की अनुमति नहीं प्रदान करनी चाहिए। अन्यथा पाणिगृहीता पत्नी असाध्य व्याधि से ग्रस्त रहती है अथवा अकाल-काल-कवलित होती है ।

यदि जन्मांग में दोपयुक्त मंगल शनि से युक्त अथवा दृष्ट हो तो मंगल-दोप परिवद्धित हो जाता है ।

बृहस्पति की राशि में संस्थित मंगल दोष की दृष्टि से अत्यन्त घातक होता है । इस पर विशिष्ट शोध हुई है । सारावली में कल्याणवर्मा ने मंगल की इस स्थिति को अशुभ बताया है । परस्पर सप्तमस्थ शनि-मंगल मंगलदोष को वद्धित करते हैं ।

यद्यपि स्वगृही मंगल अपेक्षाकृत न्यून घातक होता है किन्तु मेष राशि संस्थित मंगल

प्रवल घातक होता है ।

पापाक्रान्त मंगल अत्यन्त दोषपूर्ण सिद्ध होता है ।

उपर्युक्त स्थितियों के सतर्क परीक्षण निरीक्षण के उपरान्त हो किसी निष्कर्ष की

घोषणा करनी उचित होगी। मंगल की अपवाद परक दोष स्थितियाँ

मंगल दोष के विषय में अन्तिम अथवा अन्यतम निर्णय देने के पूर्व स्थितियों और योगों का भली-भाँति अध्ययन करना चाहिए । किंचित् असावधानी अत्यन्त घातक निष्कर्ष प्रदान कर सकती है । मंगल दोष के संदर्भ में निम्नलिखित अपवादों को सर्वदा चिन्तन-पटल पर चेतन रखना चाहिए। इन स्थितियों में मंगल-दोष नहीं होता :

यदि मंगल चतुर्थ अथवा सप्तम भावस्य हो तथा किसी क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट न हो एवं इन भावों में मेष, कर्क, वृश्चिक अथवा मकर राशियाँ विनियोजित हों । यदि लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में सबल चन्द्र, बृहस्पति अथवा बुध की मंगल के साथ सहसंस्थिति हो ।

यदि वृष या तुला राशि परक मंगल चतुर्थ अथवा सप्तम भावस्थ हो ।

यदि मिथुन अथवा कन्या परक मंगल द्वितीय भावस्थ हो । यदि बृहस्पति की राशि में अष्टमभावस्थ मंगल हो । परन्तु मंगल वृहस्पति की

शोध के पश्चात् यह स्थिति मंगल दोष में वृद्धि का कारण है न कि निरस्तीकरण का

यदि मंगल कर्क अथवा मकर राशिगत हो ।

यदि मंगल अश्विनी, मघा अथवा मूल नक्षत्र में संस्थित हो ।

की राशि में द्वादशभावस्य मंगल हो । यदि शुक्र

यदि अष्टमभावस्थ मंगल से युक्त जन्मांग की लग्न कर्क या सिंह हो ।

यदि वृष अथवा सिंह लग्न संयुक्त जन्मांग में मंगल द्वितीय भावस्थ हो ।

यदि मंगल सूर्य की राशि अथवा चन्द्र की राशि अथवा आत्मोच्च राशि में अथवा

अर्थात् यदि वर और कन्या के जन्मांग में मंगल द्वितीय, द्वादश, चतुर्थ, सप्तम, अथवा अष्टम भाव में लग्न, चन्द्र अथवा शुक्र से समभाव में स्थित हो तो समता का मंगलदोष होने के कारण वह प्रभावहीन हो जाता है । परस्पर सुख, धनधान्य, संतति, स्वास्थ्य एवं मित्रादि की उपलब्धि रहती है ।

जामित्रे च यदा सौरिलग्ने वा हिदुकेऽथवा । अष्टमे द्वादशे वाऽपि भौमदोषविनाशकृत् ॥

अर्थात् यदि एक जन्मांग में मंगल १, २. ३, ४, ७, ८, १२ में संस्थित हो तथा द्वितीय जन्मांग में शनि इन्हीं भावों में से किसी में संस्थित हो तो मंगल दोष निरस्त हो जाता है ।

सबले गुरौ भृगौ वा लग्ने द्यूनेऽपि वाऽथवा भीमे ।

वक्रिणि नीचगृहे वार्कस्थे न कुजदोषः ॥ अर्थात् यदि लग्न अथवा सप्तम भाव में शुक्र अथवा वृहस्पति संस्थित हो एवं मंगल दुर्बल हो ऐसा कहा गया है परन्तु शोध से सिद्ध हुआ कि मंगल पर बृह स्पति के प्रभाव से मंगल दोष में वृद्धि होती है ।

यदि मंगल शनि द्वारा संचालित राशि में हो । उपर्युक्त योग-संयोगों के परिणामस्वरूप मंगल-दोष नहीं होता । अतएव इन्हें कंठाग्र कर लेना चाहिए ।

मंगल दोष के परिहार :

मंगल-दोष ने जनमानस में आतंक के इतने सशक्त सूत्र प्रारोपित कर लिये हैं कि मंगली जातक अथवा जातिका का विवाह एक दुर्धर्षं समस्या बन जाती है । किन्तु सुविधानित माध्यमों से विचार करने पर इसके परिहार के अनेकानेक विन्दु स्पष्ट हो जाते हैं | मंगल—दोष को सुनिश्चित करने के अनन्तर निम्नांकित निदानों का आचार्या नुमोदित उपयोग-प्रयोग करना चाहिए ।

मंगल दोष दूषित जातिका को एक पंचमुखी दीप प्रज्ज्वलित करके मंगल ग्रह एवं अपने इष्ट का सविधि पोडशोपचार अथवा पंचोपचार पूजन करना चाहिए। पूजनो परान्त श्री मंगल चण्डिका स्तोत्र का १०८ दिवस तक नित्यप्रति ७ अथवा २१ जप करना चाहिए ।

"रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मंगलचंडिके ।

हारिके विपदां राशे हर्षमंगलकारिके ॥

हर्षमंगलदक्षे हर्ष मंगलदायिके ।

शुभे मंगलदक्षे च शुभे मंगलचंडिके ॥
मंगले मंगला च सर्वमंगलमंगले । सदा मंगलदे देवि सर्वेषां मंगलालये ॥ "

माँ गौरी का पंचमुखी दीप प्रज्ज्वलित करके पंचोपचार अथवा षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। तत्पश्चात् १०८ दिन तक ७ अथवा २१ वार पार्वती स्वयंवर का पाठ करना चाहिए ।

"बालार्कायुतसत्प्रभां करतले लोलम्बमालाकुलां मालां सन्दधतीं मनोहरतनुं मन्दस्मितोद्यन्मुखीम् ।

मन्दं मन्दमुपेयुषीं वरयितुं शंभु जगन्मोहिनीं

बन्दे देवमुनीन्द्रवन्दितपदां इष्टार्थदां पार्वतीम् ॥ " मंगल असमराशि - संस्थित होने पर भगवान् सुब्रह्मण्यम् की आराधना करनी हितकर होती है ।

मंगल समराशि - संस्थित होने पर अम्बाला की उपासना करनी चाहिए । मंगल के वैदिक मंत्र का १०८ दिवस तक ७ अथवा २१ माला जप करना चाहिए। जाशु प्रभाव के लिए १०,००० आवृत्ति में जप का एक पुरश्चरण करना चाहिए ।

यदि कन्या भीषण मंगल-दोष दूषित हो तो भावी सौभाग्य को समयोचित करने के लिए कुम्भ, पीपल अथवा विष्णु वर की प्राणप्रतिष्ठित प्रतिमा के साथ परिक्रमा करके चिरंचीव वर के साथ परिणय सम्पन्न हो तो दोप प्रभावी नहीं होता, पुनर्विवाह का दोष भी आक्षेपित होने से मुक्ति मिलती है । यह क्रिया अत्यन्त गुप्त रूप से सम्पन्न होनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि कन्या स्वयं आस्पद (कुम्भ, पीपल, विष्णु ) का वरण करे । पिता इसमें निष्क्रिय रहे क्योंकि शास्त्रानुसार कन्या का दान एक बार ही किया जाता है । यदि वर से पूर्व आस्पद को कन्या दान दे दिया जायेगा तो पुनः दान का महापाप आरोपित होगा। अतएव पूर्व परिणय में कन्या स्वयं वरण करे । किन्तु यह परिणय सुपर्णं विधि विधान के साथ निष्पन्न हो, अन्यथा दोष का प्रामाणिक परिहार नहीं होगा । गोपनीयता इस विधि की प्राथमिक और अंतिम प्रतिक्षा होनी चाहिए । परिणय के निमित्त प्रेषणीय लग्न पत्रिका से पूर्व वह परिहार प्रक्रिया संपन्न होनी चाहिए ।

अमंगल व अशुभ की निवृत्ति व शुभ की सिद्धि के लिए मंगल यंत्र प्रयोग एक अमोघ उपाय सिद्ध हुआ है इसका विधान इस प्रकार है ।
सावित्री व्रत

मंगल दोष दूषित जातिकाओं को सविधि-सश्रद्धा सावित्री व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इस व्रत का विधि-विस्तार प्रतादि से संबद्ध अध्याय में उद्द्भुत है।

मंगला गौरी व्रत

वैधव्य दोष नाश के लिये यह सर्वोत्तम व्रत है जो स्वयं भगवान् शंकर ने सनत्कुमार को बताया था ।

किसी कन्या के जन्मांग में यदि प्रबल कुज दोप हो अथवा वैधव्य कारक ग्रह संस्थित हों तो इस व्रत को निश्चय ही करना चाहिये। इस व्रत को ५ वर्ष तक कर लेने पर वृद्धावस्था में भी वैधव्य नहीं प्राप्त होता है। यह एक अत्यन्त परीक्षित प्रयोग है।

मंगल दोष निर्धारण एक तुलनामत्क गणितीय प्रविधि

प्रस्तुत विवेचन अत्यन्त विरलज्ञात तथ्य है । इस प्रविधि से मङ्गल दोष दूषित जन्मांगों का विश्लेषण करके प्रामाणिक रूपेण दोप की क्षमता की घोषणा की जा सकती है । प्रायः मङ्गली जातिका का परिणय मङ्गली जातक से करने की शास्त्रानु मोदित लोकरीति है। किन्तु मेलापक के समय मात्र सामान्य रूप से दृष्टिपात उचित नहीं होता, दोष की प्रभाववत्ता एवं भावानुसार उसकी फलवत्ता पर भी ध्यान केन्द्रित रहना चाहिए, यथा चतुर्थ भावस्य अथवा द्वादश भावस्थ मङ्गल मष्टमभावस्थ अथवा सप्तम भावस्थ मङ्गल की अपेक्षा न्यून प्रहार क्षमता रखता है । अतएव इनकी परस्पर तुलना करके दोप के विरेचित होने का निर्णय भ्रामक सिद्ध होता है । वर्तमान काल में ज्योतिष के एक विश्वविद्युत व्यक्तित्व ने स्वमत दिया है कि वर-वधू के जन्मांगों का तुलनात्मक गणितीय विश्लेषण करके निष्कर्ष प्राप्त करना चाहिए कि किसका मङ्गल दोष प्रबल है और किसका क्षीण बल ।

मङ्गल, शनि, सूर्य, राहु और केतु क्रूर ग्रह परिगणित किये गये हैं । इनके १, २, ४, ७, ८, १२ भाव में संस्थित होने से किसी न किसी सन्दर्भ में अवांछित क्लेशद परिस्थितियां समुत्पन्न होती हैं। इनका भी तुलनात्मक विवेचन करना चाहिए । यथा उच्चराशिस्थ मङ्गल शत्रुराशिस्थ अथवा नीचराशिस्थ मङ्गल की अपेक्षा कम, दूषित होता है । दृष्टि इत्यादि के परिणामस्वरूप परिवर्तित परिवर्द्धित होता रहता है । उनकी प्रभावक्षमता एवं मारक क्षमता की भारात्मकता निम्नलिखित प्रविधि से उपलब्ध करनी चाहिए :



स्वगृही हो ।

यदि स्वराशिगत मङ्गल चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भावस्थ हो ।

यदि चतुर्थ भावस्य मङ्गला अथवा वृष राशिगत हो ।

यदि द्वादशभावस्थ मङ्गल कन्या, मिथुन, वृष अथवा तुला राशिगत हो । दम्पत्योर्जन्मकाले व्ययधनहियुके सप्तमे लग्नरन्ध्रे

लग्नाच्चन्द्राच्च शुक्रादपि भवति यदा भूमिपुत्रो द्वयोर्वे । तत्साम्यात्पुत्रमित्रप्रचुरधनपती दम्पती दीर्घकालं

जीवतामेकहा न भवति मृतिरिति प्रातुरनात्रिमुख्याः ॥सावित्री व्रत

मंगल दोष दूषित जातिकाओं को सविधि-सश्रद्धा सावित्री व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इस व्रत का विधि-विस्तार प्रतादि से संबद्ध अध्याय में उद्द्भुत है।

मंगला गौरी व्रत

वैधव्य दोष नाश के लिये यह सर्वोत्तम व्रत है जो स्वयं भगवान् शंकर ने सनत्कुमार को बताया था ।

किसी कन्या के जन्मांग में यदि प्रबल कुज दोप हो अथवा वैधव्य कारक ग्रह संस्थित हों तो इस व्रत को निश्चय ही करना चाहिये। इस व्रत को ५ वर्ष तक कर लेने पर वृद्धावस्था में भी वैधव्य नहीं प्राप्त होता है। यह एक अत्यन्त परीक्षित प्रयोग है।

मंगल दोष निर्धारण एक तुलनामत्क गणितीय प्रविधि

प्रस्तुत विवेचन अत्यन्त विरलज्ञात तथ्य है । इस प्रविधि से मङ्गल दोष दूषित जन्मांगों का विश्लेषण करके प्रामाणिक रूपेण दोप की क्षमता की घोषणा की जा सकती है । प्रायः मङ्गली जातिका का परिणय मङ्गली जातक से करने की शास्त्रानु मोदित लोकरीति है। किन्तु मेलापक के समय मात्र सामान्य रूप से दृष्टिपात उचित नहीं होता, दोष की प्रभाववत्ता एवं भावानुसार उसकी फलवत्ता पर भी ध्यान केन्द्रित रहना चाहिए, यथा चतुर्थ भावस्य अथवा द्वादश भावस्थ मङ्गल मष्टमभावस्थ अथवा सप्तम भावस्थ मङ्गल की अपेक्षा न्यून प्रहार क्षमता रखता है । अतएव इनकी परस्पर तुलना करके दोप के विरेचित होने का निर्णय भ्रामक सिद्ध होता है । वर्तमान काल में ज्योतिष के एक विश्वविद्युत व्यक्तित्व ने स्वमत दिया है कि वर-वधू के जन्मांगों का तुलनात्मक गणितीय विश्लेषण करके निष्कर्ष प्राप्त करना चाहिए कि किसका मङ्गल दोष प्रबल है और किसका क्षीण बल ।

मङ्गल, शनि, सूर्य, राहु और केतु क्रूर ग्रह परिगणित किये गये हैं । इनके १, २, ४, ७, ८, १२ भाव में संस्थित होने से किसी न किसी सन्दर्भ में अवांछित क्लेशद परिस्थितियां समुत्पन्न होती हैं। इनका भी तुलनात्मक विवेचन करना चाहिए । यथा उच्चराशिस्थ मङ्गल शत्रुराशिस्थ अथवा नीचराशिस्थ मङ्गल की अपेक्षा कम, दूषित होता है । दृष्टि इत्यादि के परिणामस्वरूप परिवर्तित परिवर्द्धित होता रहता है । उनकी प्रभावक्षमता एवं मारक क्षमता की भारात्मकता निम्नलिखित प्रविधि से उपलब्ध करनी चाहिए :वर कन्या के जन्मांग में मंगल दोष की तुलना

अष्टम

सप्तम

चतुर्थ

द्वादश

मंगल शनि

सूर्य मंगल

शनि

राहू

राह

केतु

केतु

१००

७५

५०

३७.५०

सूर्य

नीच राशि में

५०

२५

९०

६७.५०

४५

४५

३३७५

२२.५०

पु राशि में

सम राशि में

८०

६०

४०

४०

३०.०० ३५ ३५ २६-२५ १७.५०-२

२०.००

७०

५२.५०

६०

४५

३०

मित्र राशि में

स्व राशि में

३०

२२.५० १५००

उच्च राशि में

५० ३७५०

२५ २५ १८.७५ १२५०

उपरिअंकित तालिका में एक विशिष्ट तथ्य का समावेश है । मंगल का दोष १,२,४,७,८,१२ भाव में सर्वाधिक होता है । मंगल शनि राहु और केतु इन स्थानों में ७५ प्रतिशत दुपकत्व रखते हैं । सूर्य इन भावों में ५० प्रतिशत ही दोष-वल प्रदर्शित करता है। इन विन्दुओं का अन्तर् - अनुधावन उपरिस्थित तालिका में है ।

तालिका के निर्देश में वर-कन्या के जन्मांगों का मंगल दोष के सन्दर्भ में सतर्क तुलनात्मक गणितीय विश्लेषण करना चाहिए। यदि कन्या के जन्मांग में मंगल दोष को दोष-क्षमता वर के जन्मांग की तुलना में मात्र २५ प्रतिशत अधिक है तो परिणय निश्चित किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। यदि वर के जम्मांग का मंगल दोष कन्या के जन्मांग की अपेक्षा परिवर्धमान हो तो परिणय का निषेध करना चाहिए। उपर्युक्त तालिकापरक विश्लेषण ज्योतिष-गौरव डॉ० बी० वी० रामन् के एक सिद्धान्त को केन्द्रीय तत्व मानकर प्रारूपित किया गया है ।

इस प्रकार विषय समाहार करते हुये कहा जा सकता है कि मङ्गल दोष एक

विवादास्पद एवं महत्वपूर्ण विषय है। अतएव सर्वप्रथम जन्मांग में मंगल दोष का

सुविधानित निश्चय करना चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि दोष-निरस्ति का कोई

सूत्र तो व्यवहृत नहीं हो रहा है। इस संदर्भ में मङ्गल की अपवादपरक दोषस्थितियों

का अभिज्ञान अत्यन्त सहायक होगा। यदि मङ्गल-दोष निरस्त नहीं हो रहा है तो

परिहार के प्रयास सक्रिय करने चाहिए। परिहार का चयन दोष की तीक्ष्णता अथवा

निर्बलता के आधार पर किया जाता है । किन्तु दूषित होने पर परिहार अन्यतम.

आवश्यकता है । अन्यथा दाम्पत्य विघटन के अध्याय का पुरोवाक् ही सिद्ध होगा 1.

जनसामान्य में इस संदर्भ में जो भ्रान्तियां प्रचलित है एवं जिन अनर्गल तथ्यों का

गहित स्वार्थों के लिए भयात्मक प्रचार करके चंचुप्रवेशी ज्योतिषाचार्य स्थितियों की

वक्र व्याख्या करते हैं, उनके विषय में उपरिविवेचित शोध बिन्दुओं का अवलंब ग्रहण

करके आख्या, आख्यायक एवं आख्येय को रेखांकितेय बनाया जा सकता है।

-:०: साभार डॉ. आशुतोष जी. 🙏

शुक्रवार, 12 जून 2020

क्या स्त्रियों को , व्यास पीठ पर बैठने या यज्ञोपवीत का अधिकार है !


       पराशर-संहिता के भाष्यकार तथा वैष्णव परंपरा के परम आचार्य मध्वाचार्य जी ने अपनी टीका में लिखा है -“द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवधवश्च| तत्र ब्रह्वादिनीनाम् उपनयनम् अग्निबन्धनम् वेदाध्ययनम् स्वगृहे भिक्षा इति, वधूनाम् तु उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः|” अर्थात् दो प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं- एक ब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन होता है और जो अग्निहोत्र , वेदाध्ययन तथा अपने घर में भिक्षावृत्ति (घर के लोगों की निष्काम सेवा तथा स्वेच्छा से मिले अन्न-धन से जीवन यापन) करती हैं | दूसरी श्रेणी (सद्योवधु) की स्त्रियाँ वे हैं जिनका शीघ्र ही विवाह होना होता है और इनका भी उपनयन-संस्कार करने के उपरांत ही विवाह करना चाहिए| गोभिलीय गृह्यसूत्र चर्चा आती है :”प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीम् अभ्युदानयन् जपेत्, सोमोsददत् गन्धर्वाय इति” अर्थात् कन्या को कपडा पहने हुए, यज्ञोपवीत पहना कर पति के निकट लाकर कहे :”सोमोsददत्”|साथ ही, एक श्लोक है (सन्दर्भ ग्रन्थ मुझे याद नहीं आ रहा) : “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते| अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा||” अर्थात् प्राचीन-काल में स्त्रियों का यज्ञोपवीत होता था, वे वेद शास्त्रों का अध्ययन करती थीं| ७ वीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन की रानी महाश्वेता का वर्णन करते हुए अपने महाकाव्य कादम्बरी में बाणभट्ट ने लिखा है : “ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्” अर्थात् ब्रह्मसूत्र को धारण करने के कारण पवित्र शरीर वाली | मालवीय जी भी स्त्रियों की वेदादि शिक्षा के प्रबल पक्षधर रहे | लक्ष्मी ने विष्णु भगवान को भागवत सुनाई |ऋग्वेद १०| ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है| ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—‘‘ऋषिर्दर्शनात्| स्तोमान् ददर्शेति (२.११)| ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)|’’ अर्थात् मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है| ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है— घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं| ऋग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं| ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह वेदाध्ययन व यज्ञ करती और कराती थीं| वे यज्ञ- विद्या और ब्रह्म- विद्या में पारंगत थीं| तैत्तिरीय ब्राह्मण’’ में सोम द्वारा ‘सीता- सावित्री’ ऋषिका को तीन वेद देने का वर्णन विस्तारपूर्वक आता है— तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त| अथ ह सीता सावित्री| सोमँ राजानं चकमे| तस्या उ ह त्रीन् वेदान् प्रददौ| -तैत्तिरीय ब्रा०२/३/१०/१,३ इस मन्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार सोम ने सीता- सावित्री को तीन वेद दिये|

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ब्रह्मवादिनी शब्द का अर्थ वेद वादिनी नहीं क्योंकि मन्वादि प्रबल शास्त्रप्रमाणों से उसका सर्वथा निषेध प्राप्त है | ब्रह्म शब्द अनेकार्थावाची होता है इसका अर्थ तप वेद , ब्रह्मा , विप्र प्रजापति (ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः) आदि होता है | वैसे भी सामान्य दृष्टि से ब्रह्म + वादिनी = ब्रह्म को कहने वाली यह अर्थ हुआ , ब्रह्म तो वस्तुतः आत्मतत्त्व को कहते हैं आत्मेति तु उपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च ब्रह्मसूत्र ४/१/३ ) , यह ॐकारमय वेद भी उसी का वाचक है ( तस्य वाचकः प्रणवः – योगसूत्र १/२७) तूने ये वेदान्तप्रसिद्ध अर्थ क्यों न लिया; वेद ही क्यों लिया बांकी क्यों नहीं ? क्योंकि तुझे मर्कट -उत्पात मचाना है न इसलिए | इतना ही नहीं अपितु अन्न , प्राण , मन , विज्ञान , आनंद , सब को भी प्रसंग प्रकरण से ब्रह्म ही कहते हैं (तैत्तिरीयोप ० भृगुवल्ली ) संस्कृत के किसी भी शब्द का अर्थ करने से पूर्व उसके पूर्वापर प्रकरण , उसके मर्म को , उसके बह्वार्थों को जानना अत्यंत आवश्यक है , अन्यथा वही स्थिति होगी कि भोजनार्थ प्रवृत्त हो रहे व्यक्ति द्वारा नमक मंगाने के लिए सैन्धवमानय ! कहा गया और श्रोता लाया घोड़ा ! (क्योंकि सैन्धव शब्द के नमक और घोडा दो दो अर्थ होते हैं ) अस्तु , उक्त मर्म को समझाने से पूर्व पहले तुम्हारा ध्यान ‘ब्रह्म’ शब्द पर लाते हैं कि ब्रह्म कहते किसको हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में स्वयं वेद कहता है कि – ये समस्त प्राणी जिस निरतिशयं निर्विशेषं महत् तत्त्वम् तत्त्व से पैदा होते हैं , जिसमें स्थित रहते और जिस में प्रविष्ट होते हैं , वही जिज्ञास्य तत्त्व ब्रह्म है , उपनिषत्सु प्रतिपादितस्य तत्त्वस्य ‘ब्रह्म’ इति नाम |
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते | येन जातानि जीवन्ति |
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति | तद्विजिज्ञासस्व | तद् ब्रह्मेति || – तैत्तिरीयोपनिषत् ३-१-३

इमानि भूतानि यतो जायन्ते, जातानि येन जीवन्ति, यदेव अभिसंविशन्ति प्रयन्ति, तदेव ब्रह्म,
तदेव विजिज्ञासस्व | अर्थात् – समस्तम् इदम् विश्वं यस्माद् उत्पद्यते, येनैव जीवति, यस्मिन्नेव च लीयते तदेव ब्रह्म | एवं समस्तस्यापि जगतः सृष्टिस्थितिलयकारणभूतं तत्त्वं वेदान्तेषु ब्रह्मशब्देन गीयते | सकलस्यास्य विश्वस्य ब्रह्म उपादानं निमित्तं च कारणं भवति | अतः ब्रह्म नैव कार्यं भवेत् | जगत्कारणत्वेन ब्रह्मण एव प्रतिपादितत्वात् कापिलसांख्यदर्शने प्रतिपादितं प्रधानं वा वैशेषिकदर्शने प्रतिपादितः परमाणुर्वा जगतः कारणं नैव भवति इत्यभिप्रायः ||
अस्तु , अब प्रश्न ये है कि ब्रह्म का ज्ञान कैसे होता है ? अब इसके उत्तर में आगे देखो –

वेद कहता है तपस्या से ब्रह्म को जानो क्योंकि तप ही ब्रह्म है – तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व| तपो ब्रह्मेति| – तैत्तिरीयोपनिषत् / भृगुवल्ली / ० १

अपनी तपस्या से पूर्वकाल में स्त्रियाँ वेद मन्त्रों का साक्षात्कार कर लेतीं थी, उनकी तपस्या क्या है ? स्वधर्म पर चलने से उनको वेद्य तत्त्व का ज्ञान हो जाता था वो तपस्या है स्वधर्मपालन, देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञों का पूजन , आर्जव , इन्द्रियों पर निग्रह , अहिंसा ,  इसी  से  वे  पापदेहा  स्त्रियाँ  शुद्धता  को  प्राप्त  होती  हैं  | (देवस्य द्विजस्य आचार्यस्य पण्डितस्य च अर्चनम्, शुद्धता, आर्जवम्, ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा च शारीरं तपः इत्युच्यते) –
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || (-भगवद्गीता १४/१४ ) ऋषन्ति ज्ञानसंसारयोः पारं गच्छन्ति ऋषयः| ऋषी श गतौ नाम्नीति किः| रिषिर्हसादिश्च| विद्याविदग्धमतयो रिषयः प्रसिद्धाः| इति प्रयोगात्| स्त्रियां ऋषी च| इत्यमरटीकायां भरतः इति हि श्रूयते |अथवा ऋषन्ति अवगच्छन्ति इति ऋषयो मन्त्राः| · ऋषि दर्शनात् (नि०२|१९|१). · स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः| · तद् यद् एतांस्तपस्यमानान् ब्रह्म (वेदं) स्वयम्भवभ्यानर्षत्, त ऋषयोऽभवन्, तद् ऋषिणामृषित्वम्| -निरुक्त २/१९/१ ऋषि गोत्र प्रवर्तक , दीर्घायु , मन्त्रसाक्षात्कर्ता, दिव्यद्रष्टा आदि हुए | दीर्घायुषो मन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः| बुद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रवर्तकाश्च ये || (वायुपु० पूर्वार्ध ६१/९४ ) ऋषि शब्द का ही स्त्रीत्व विवक्षा में प्रयोग हुआ है ऋषिका , क्यों कहा है ऋषिका ? क्योंकि किसी एक समानधर्म से उसे वह कहा गया , यथा लोक में शौर्य या क्रौर्य आदि किसी सामान धर्म के आधार पर बालक को भी सिंह कह दिया जाता है (सिंहोsयं माणवकः) | क्या समानता है ? समानता है दीर्घायुत्व की , दिव्य-द्रष्टृत्व की , प्रत्यक्षा धर्मा होने की | स्त्रियाँ भी तो दिव्यदर्शिणी हो सकती हैं | किन्तु क्या कभी तुमने किसी ऋषिका के नाम से गोत्र सुना ? नहीं न ! क्यों ? क्या किसी शास्त्र में कभी स्त्रियों की शिष्या परम्परा सुनी ? कोई स्थान विशेष में पाठ शाला पढी , जहां उनको वेदाध्ययन कराया जाता था ? नहीं न ! वो इसलिए क्योंकि उनका ऋषिका होना ऋषियों के मार्ग की भांति न रहा | उनका सिद्धि प्राप्ति का मार्ग दूसरा है | इसी प्रकार वेदोक्य सीता , सावित्री आदि सभी शब्द लौकिक अर्थ तुल्य ग्राह्य नहीं , लौकिक शब्दों तथा वैदिक शब्दों के अर्थ में बहुत भेद होता है | जैसे लोक में कवि शब्द का अर्थ कविता करने वाला होता है किन्तु वेद में त्रिकालज्ञ , लोक में क्रतु का अर्थ यज्ञ होता है किन्तु वेद में इसी शब्द का अर्थ बुद्धि हो जाता है – अग्निर्होता कविक्रतु: (ऋग्वेद , अग्निसूक्त ५ ) वेद के एक ही शब्द का ब्राह्मण ग्रन्थ अनेक अर्थ प्रकाशित करते हैं, विचक्षणता के बिना इसे नहीं समझा जा सकता |  बहुभक्तिवादीनि हि ब्राह्मणानि भवन्ति | पृथिवी वैश्वानर:, संवत्सरो वैश्वानरो, ब्राह्मणो वैश्वानर इति” (- निरुक्त ७/७/२४ ) अस्तु ,
शास्त्रकारों का कथन है कि मनुस्मृति के विरुद्ध जो स्मृति वचन है वह प्रशस्त नहीं माना गया है क्योंकि वेदार्थ के अनुसार निबद्ध होने से सर्वप्रथम मनु की मान्यता है (सर्वधर्ममयो मनु : ) , जैसा कि –

मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते |
वेदार्थोपनिबद्धत्त्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः | | तथाहि ——–>

यद् वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम् | ( तैत्तिरीय सं०२/२/१०/२)

मनु र्वै यत् किञ्चावदत् तत् भेषज्यायै | (- ताण्ड्य-महाब्रा०२३/१६/१७)

अथापि निष्प्रचमेव मानव्यो हि प्रजाः | ऋग्वे० १/८०/१६ अपि द्रष्टव्यम् |

……..ये तो हो गया पाराशर संहिता पर द्विविधा स्त्रियो ० और “पुराकल्पे हि नारीणां मौञ्जीबन्ध ० आदि का उत्तर |

अब सुनिए ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् का उत्तर —>

ब्रह्मसूत्र शब्द विविध अर्थों वाला है , ब्रह्म शब्द के अर्थ तप , वेद , ब्रह्मा , विप्र , प्रजापति आदि माने गए हैं | अतः महाश्वेता स्वधर्म पालन रूप तपस्या से ही पवित्र काया हुई थी ऐसा सिद्ध होता है —->

ब्रह्मशब्दं तपो वेदो ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः इति वचनेन अत्र ब्रह्मसूत्रशब्दस्य तपः सूत्रेण पवित्रीकृतकायामिति तात्पर्यं समीचीनम् | बह्वर्थको हि ब्रह्मसूत्रशब्दः, तथाहि यज्ञोपवीतभिन्नार्थे – ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैरिति गीतायाम् |

अब आगे देखिये –

स्त्री का पति ही उसका गुरु है | शास्त्र कहता है –

गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः |
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ||
(-पद्मपुराण स्वर्ग॰५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७ )
अग्नि द्विजातियोँ का गुरु है, ब्राह्मण चारोँ वर्णोँ का गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोँ का गुरु है और अतिथि सबका गुरु है |’   स्त्रियों का जनेऊ संस्कार  घोर पाखंड  है , किं च –

वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः |
पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोँऽग्निपरिक्रिया || (मनुस्मृति २/६७ )

‘स्त्रियोँ के लिये वैवाहिक विधि का पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पति की सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है |’

इस महामूर्ख मालवीय का परम पूज्य  धर्मसम्राट् स्वामि श्री करपात्री जी महाराज ने ऐसा   भ्रम  भंग  किया  था कि याद कर गया था | ऋषिकेश में तीन दिन तक अपने सुई से लेकर सब्बल तक के सारे तर्क शास्त्रार्थ में ( जिसके मध्यस्थ जयदयाल गोयन्दका आदि रहे ) इसने प्रस्तुत किये , अंततः इस पाखंडी का वही हाल हुआ जो सिंह की खाल पहने हुए सिंह के सम्मुख आकर उसे ललकारने वाले सियार का होता है | पर बेशर्मों  का  क्या  है भला    ! अस्तु  ,
लक्ष्मी ने भागवत विष्णु को सुनाई तो भला इससे स्त्रियों के व्यासासन पर भागवत की सिद्धि कैसे हो गयी लक्ष्मी कोइ स्त्री देह धारिणी मानव तो हैं नही , वे तो सबके हृदय मे व्याप्त स्वयं परमात्मतत्त्व हैं, और आत्मा को लौकिक स्त्रियों के तुल्य किसी एक जाति विशेष से जोड़ लेना ही मूर्खता है, ( त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारीति श्वेताश्वतरोप० ४/३ ) दूसरी बात ये है कि लक्ष्मी भी व्यासासन पर बैठकर विष्णु को भागवत नहीं सुनातीं अपितु भागवती वार्त्ता वे करती हैं , जिसका अभिप्राय है , भगवान की लीला कथाओं का परस्पर संवाद करना | संवाद अलग चीज है और व्यासासन पूर्वक भागवत अनुष्ठान संपन्न करना अलग | स्वयं श्री भगवान् गीता में कहते हैं कि – येषां चित्तं मयि संलग्नं भवति, येषाम् इन्द्रियाणि मयि सन्ति तादृशाः बुधाः भावसमन्विताः अन्योन्यं मां बोधयन्तः कीर्तयन्तः च सदा सन्तोषं प्राप्नुवन्ति, मय्येव च विहरन्ति यथा – –

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || (-श्रीमद्भागवद्गीता १०/९ )

वे दृढ निश्चयवाले मेरे भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं |
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते || (-श्रीमद्भागवद्गीता ९/१४)

स्वयं को वेद की अधिकारिणी बना कर जिस भागवत को ये स्त्रियां व्यासासन से सुनाना चाहती है, वह किस मुख से उसका पारायण करती हैं ? क्योंकि स्वयं श्रीमद्भागवत ही उनको अनधिकारिणी बता रही है यथा – स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा| (- श्रीमद्भागवत १/४/२५) महर्षि वेदव्यास से अधिक जानकार तो होंगे नहीं आप !

प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं| इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया| पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए| इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए| समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है| कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से चार शिष्यों को चार वेद पढ़ाये—
(१) मुनि पैल को ॠग्वेद
(२) वैशंपायन को यजुर्वेद
(३) जैमिनि को सामवेद
(४) सुमन्तु को अथर्ववेद

महर्षि वेदव्यास के ये उत्तराधिकारी पुरुष ही थे , स्त्री नहीं और इनकी जो परम्परा चली वह भी पुरुषों में ही चली , जो अद्यावधि पर्यन्त स्व-स्व शाखाध्यायी ब्राह्मण पुरुषों में विस्तार को प्राप्त होकर व्याप्त है | केवल महर्षि वेदव्यास के साक्षात् शिष्यों अथवा उनकी शिष्य परम्परा में आने वाले पुरुषों को ही व्यास आसन पर बैठने का अधिकार है |
मनुस्मृति ने स्पष्ट किया है कि स्त्रियाँ निरिन्द्रिय, मन्त्ररहिता, असत्यस्वरूपिणी हैं- निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति स्थिति:| —मनु० ९/१८
स्त्री पापयोनि है , उसके जन्म का कारण पाप है , इस विषय में गीता का यह श्लोक स्पष्ट प्रमाण है –

हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र या पापयोनि- चाण्डालादि चाहे जो कोई भी हों, वे यदि मेरे आश्रित हो, तो परमगतिको ही प्राप्त होते हैं –

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || (- श्रीमद्भगवद्गीता९/ ३२)

आक्षेप – यहाँ ‘पापयोनि’ –यह शब्द स्त्रियों वैश्यों आदि का विशेषण मानना आयुक्त है क्योंकि छान्दोग्योपनिषद् में वैश्य को उत्तमयोनि कहा अतः श्रुति विरुद्ध अर्थ अग्राह्य है |

समाधान – “रमणीयां योनिम्” विशेषण ही कहा है , “पुण्ययोनिम्” नहीं कह दिया है जो शुरू हो गए हो खंडन करने ; गीतोक्त “पापयोनि” का निषेध नहीं हुआ है यहाँ ! पापयोनि शब्द का अर्थ ही तुमको ज्ञात नहीं अन्यथा ये भारी भूल न करते ! स्त्री वैश्य तथा शूद्र के प्रति “पापयोनि” विशेषण की संगति करने वाले आचार्य शंकर स्वयं यहाँ स्पष्ट करते हैं कि द्विजत्व की प्राप्ति में पुण्यत्व नहीं है -ऐसी बात नहीं पुण्यत्व तो है , तभी तो द्विजत्व मिला | इसलिये वे इस मन्त्र पर लिखते हैं – /// रमणीयचरणेनोपलक्षितः शोभनोऽनुशयः पुण्यं कर्म येषां ते रमणीयचरणा: ////, //// ये तु रमणीयचरणा द्विजातयस्ते // आदि (तत्रैव शांकरभाष्य )
……………… अतः ज्ञातव्य ये है कि मानव योनि में जन्म लेने वाला जीव , स्त्री वैश्य और शूद्र – इन तीन के रूप में पाप के प्रभाव से जन्म लेता है और ब्राह्मण – इस योनि में पुण्य के प्रभाव से | याने पूर्वपुण्य का प्रभाव इनको मानव तो बना देता है किन्तु पाप का प्रभाव ही इनको ब्राह्मण पुरुष नहीं बनने देता , ये सिद्धान्त है अन्यथा तो ब्राह्मण ही होते वैश्य या शूद्र क्यों होते ? इसलिए पापयोनि हैं |जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता-इत्यादिपूर्वक यही मर्म भगवान् शंकर ने विवेकचूडामणि में समझाया है अर्थात् संसार में जन्म लेने वालों में पहले तो नर जन्म ही दुर्लभ होता है, फिर पुरुषत्व मिलना दुर्लभ है , मानव जन्म हो गया , पुरुष भी हो गया तो फिर ब्राह्मण होना तो और भी दुर्लभ होता है |

अभी अभिधारणा और दृढ होगी , आगे देखो –

प्रश्न – उत्तम योनि कह दिया तो स्पष्ट है अधम योनि तो है नहीं ! दिन है कह दिया तो स्पष्ट है कि रात नहीं है |

उत्तर – ये तर्क तो तब काम करता जब श्रुति ने पुण्ययोनि विशेषण श्रुति ने दिया होता , सो तो दिया नहीं | तो फिर कैसे कहते हो कि पापयोनि का न होना सिद्ध हुआ ? यहाँ रमणीय विशेषण पर “शास्त्रीयचरणम् आचरणम् कर्मं येषां तथाभूताः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसम्बन्धिनीं रमणीयां निजोद्धारक्षमां योनिम् आपद्यन्ते ” ऐसा राघवकृपाभाष्यकार का कथन है , (तत्रैव, राघवकृपाभाष्य पृष्ठ ५६०) याने के जिनको शास्त्रीय आचरणपूर्वक स्वयं का उद्धार करने की सक्षमता है वे हैं रमणीयचरण – ऐसा कह रहे हैं अर्थात् स्पष्ट है कि द्विजत्वप्राप्तिपूर्वक शास्त्रीय विधि-निषेध कासम्पादन करने वाली योनियाँ – ये अभिप्राय राघवकृपाभाष्यकार कहना चाहते हैं| (अर्थात् पुण्ययोनि के स्थान पर शास्त्रीय आचरण में सक्षम योनि -ऐसा अभिप्राय स्वीकृत किया है ) अब बताइये क्या कहोगे ?

पुनश्च यहाँ तो द्विजत्वप्राप्ति में सक्षम या कहिये शास्त्रीयविधिनिषेधों के पालन के अधिकारी योनियों का ही पृथकीकरण हुआ ! तो कहाँ पर गीतोक्त “पापयोनि ” विशेषण का खंडन हुआ है यहाँ भला ? ये पापयोनि द्विजत्व प्राप्ति की अधिकारिणी योनियाँ नहीं हैं ऐसा तो आचार्य शंकर ने कहा नहीं ! (अर्थात् न हैं कहा न नहीं हैं कहा ), वे तो उतना ही बोल रहे हैं जितना कि अखण्डनीय सिद्धान्त है , फिर आक्षेप किस आधार पर ?

पापयोनि, पुण्ययोनि , पापकर्मा , पुण्यकर्मा – प्रत्येक शब्द स्वयं में अलग -अलग अभिप्राय लिए है | पुण्यकर्मा होकर पाप – प्राधान्यत्वेन पापयोनि हो सकता है, पापकर्मा होकर पुण्य-प्राधान्यत्वेन पुण्ययोनि हो सकता है | -ये शास्त्रीय सिद्धान्त है |

अस्तु , आगे चलिए –

क्या ये सिद्धांत है कहीं वर्णित कि द्विजत्व की अधिकारिणी योनि पापयोनि हो ही नहीं सकती ? “पुण्ययोनि” विशेषण यदि द्विजमात्र को प्राप्त हो जावे तब तो आपका मत संगतहो सकता है किन्तु ऐसा भी नहीं ; ये तो केवल ब्राह्मण को ही श्री भगवान द्वारा स्वीकृत है |

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या ——तत्रैव गीतायाम् ९/३३

यहाँ पुण्या से पुण्ययोनयः – ऐसा ही अर्थ उचित है क्योंकि पीछे से पापयोनि विषयकपूर्वार्ध स्पष्ट हुआ है |

बांकी इस स्त्रियो वैश्यास्तथा० पर वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक ने इस श्लोक की व्याख्या पर देखो कैसे समझाते हैं आप हठधर्मियों को –

///त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोsपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्रानधिकारित्वात् /// ……इस प्रकार सविस्तार आप आक्षेपकर्त्ताओं की हठधर्मिता की धज्जियां वेदान्तदेशिकाचार्य ने सविस्तार उडाई ही की है , स्वयं पढ़ना उठाकर ,तुम्हारे लिए इतना संकेत ही बहुत है |



|| जय श्रीराम ||

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

क्या बाल्मीकि रामायण में मिलावट हुई है, क्या सीता परित्याग(पुनः वनगमन) शम्बूक बध कभी हुआ ही नहीं!

क्या सीताजी का पुनः वनगमन नहीं हुआ !

आज यह प्रश्न फिर उठा है, क्योंकि कुछ बड़े सन्तों ने और कवि से राजनेता बने और कथावाचक बनने का प्रयास करने वालों ने कहा , ऐसा हुआ ही नहीं यह मिलावट हुई है । और यदि है तो तुलसीदास जी ने क्यों नहीं लिखा (तो अन्य ग्रंथों में तो लिखा है उसके प्रमाण क्रमशः देंगें)

पर जानते हैं इस पर संदेह फैलाने वाले पहले व्यक्ति
1949 में कामिल बुल्के(पादरी) ने लिखा था बाल्मीकि रामायण में उत्तर काण्ड प्रक्षिप्त(मिलावट है) ! सीता परित्याग/लवकुश का वन में जन्म हुआ ही नहीं । (तर्कों के साथ)

उस समय उत्तर मिला था - वस्तुतः ऐसे कथन उत्तरदायित्व हीन हैं, किसी ठोस प्रमाण के अभाव में किसी भी ग्रंथ के किसी भी अंश को मिलावट कह देना, और उन्हीं अंशों में से अपने स्वार्थानुसार कुछ अंशों को स्वीकार कर लेना साभिप्राय कुतर्क ही है,
कहने वाले से पूछा जाये किसने मिलावट की क्यों की कब की किस वर्ष मास तिथि में तो उत्तर नहीं दे पायेंगे ।
• उत्तर काण्ड (सीता परित्याग इत्यादि ) को प्रक्षिप्त (मिलावट) कह देना, अर्ध कुक्कुटी न्याय है,
• और फिर पूर्णतः तर्कों के साथ इसका खण्डन करने वालेथे ब्रह्मलीन
धर्म सम्राट जगद्गुरु स्वामी श्री करपात्री जी महाराज

आगे क्रमशः प्रमाण मिलेंगे, और जो ऊपर लिखा है उसका भी नि:संदेह प्रमाण मांग सकते हैं ।
क्रमशः ! 
अब आते हैं, उनके दूसरे तर्क पर
कि बाल्मीकि रामायण में लिखा है, गर्भवती श्री सीता परित्याग/लवकुश का वन में जन्म पर तुलसीदास जी ने नहीं लिखा (इसलिये मानते हैं कि बाल्मीकि रामायण में मिलावट हुई है)
उत्तर - ठीक कहा तुलसीकृत रामचरितमानस में नहीं लिखा पर उसमें बहुत सी बातें नहीं लिखीं, जैसे शत्रुघ्न जी द्वारा लवणासुर को मारकर मथुरा पुरी बसाना आदि। तो क्या यह सभी असत्य है ।
कहाँ लिखा है, यद्यपि यहाँ बाल्मीकि रामायण के प्रमाण नहीं देगें क्योंकि आप उसे प्रक्षिप्त मानते हैं,
• श्रीमद्भागवत नवम् स्कन्ध अध्याय 11, 8 से 11 श्लोकों में देखिये स्पष्ट लिखा है, श्रीराम द्वारा लोकोपवाद के भय से श्री सीता जी का गर्भावस्था में परित्याग, बाल्मीकि आश्रम में ही लवकुश जन्म ।
• अग्निपुराण 11वाँ अध्याय, 10 से 13वें श्लोक तक, उपरोक्त लिखा हुआ स्पष्ट लिखा है ।
• पद्मपुराण पाताल खण्ड, में स्पष्ट रूप से इसी वर्णन के साथ धोबी के पूर्वजन्म व माता सीता को श्राप लगने का वर्णन है श्रीराम अश्वमेध यज्ञ प्रसंग में (संक्षिप्त पद्मपुराण geetaprees page 513-519)
और फिर भी ना मानें तो बतायें, रामायण में 24000 श्लोक हैं, जिनकी संख्या पुराणों में उल्लेखित है, तो यदि 500-600श्लोक मिलावट हैं, तो अब भी संख्या 24000 क्यों,? क्रमशः,,,


 तृतीय- श्रीसीता परित्याग(पुनः वन गमन) और लवकुश का जन्म वन में, हुआ ही नहीं, उत्तर काण्ड प्रक्षिप्त (मिलावट) है, ऐसा कुछ विद्वान कहते हैं, --- प्रसंग में क्रमशः,,,,,
पिछले भाग में, पुराणों से प्रमाण दिया कि श्रीसीता परित्याग(धोबी ने अपशब्द कहे) और लवकुश जन्म वन में, यह वहाँ भी लिखा है । अब वो कह सकते हैं, पुराणों में भी मिलावट हो सकती है।
तो आपको ज्ञात होगा महाकवि कालिदास जी द्वारा रचित रघुवंश महाकाव्य में भी यही लिखा है कुछ श्लोक देखते हैं,




यह प्रमाण, 14वें सर्ग के 31 वें श्लोक से प्रारम्भ होकर ,15 वें सर्ग में भी है । वही सब लिखा है सीता परित्याग लवकुश जन्म उत्तर काण्ड,
अब क्या कहेंगे यह भी प्रक्षिप्त है यहाँ भी मिलावट है ? पर
वस्तुतः कोई मिलावट नहीं है, उत्तर काण्ड सहित पुरी बाल्मीकि रामायण वही है, जो बाल्मीकि जी ने लिखी ।
क्रमशः,,,,,





बुधवार, 11 दिसंबर 2019

नष्ट धन/फंसा हुआ धन - वापिस प्राप्ति के लिए श्रीकार्तवीर्यार्जुन (अनुष्ठान मन्त्र)

       




                           ॥श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय नमः ।।





विनियोगः -
      ॐ अस्य श्री कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेय ऋषिः
अनुष्टप् छन्दः श्री कार्तवीर्यार्जुनो देवता कामनासिद्धयर्थे
जपे विनियोगः
 
   
करन्यासः -
ॐ दत्तात्रेयप्रियतमाय - अङ्गष्ठाभ्यां नमः
ॐ माहिष्मतीनाथाय. तर्जनीभ्यां नमः
ॐ रेवाजलक्रीडासक्ताय मध्यमाभ्यां नमः
ॐ हैहयाधिपतये अनामिकाभ्यां नमः
ॐ सहस्रबाहवे - कनिष्ठिकाभ्यां नमः
   
       ऊँ दत्तात्रेय प्रियतमाय, माहिष्मतीनाथाय,
रेव्राजलक्रीडासक्ताय, हैहयाधिपतये, सहस्त्रबाहवे नमः,
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।।
 
   हृदयादिन्यासः -

ऊँ दत्तात्रेयप्रियतमाय - हृदयाय नमः
ॐ माहिष्मतीनाथाय - शिरसे स्वाहा 
ॐ रेवाजलक्रीडासक्ताय - शिखायैवषट्
ॐ हैहयाधिपतये - कवचाय हुम्
ॐ सहस्रबाहवे - नेत्रत्रयाय वौषट्
ॐ दत्तात्रेय - प्रियतमाय, माहिष्मतीनाथाय,
रेवाजलक्रीडासक्ताय, हैहयाधिपतये, सहस्त्रबाहवे नमः,अस्त्राय फट् ।

                      ध्यानम् -

सहस्रबाहुं सशरं सचापं,

             रक्ताम्बरं रक्तकिरीटकुण्डलम् ।
चौरादिदुष्टभयनाशनमिष्टदं तं,

              वन्दे महाबलविजृम्भितकार्तवीर्यम् ।।

मूलमन्त्र

ॐ नमो भगवते श्री कार्तवीर्यार्जुनाय हैहयनाथाय
कार्तवीर्यार्जुन सहस्रकर - सदृश - सर्व - दुष्टान्तक सर्वानुदधे
आगन्तुकास्मदवस्तुविलुम्पकान् चौरसमूहान् चक्रसहस्रा
कर्षयाकर्षय स्वचापोदगत - बाणसह्रैः भिन्धि भिन्धि,
स्वहस्तोद्गत - मुसलसहस्त्रैर्भीषयभीषय, स्वशङ्खोद्गत
नादिसहस्त्रैन्निकृन्तय निकून्तय त्रासय त्रासय गर्जय गर्जय
आकर्षयाकर्षय भ्रामय भ्रामय मोहय मोहय उन्मादयोन्मादय
तापय तापय विदारय विदारय स्तम्भय स्तम्भय निकृन्तयः
"कृन्तय मारय मारय उत्पाटयोत्पाटय   उच्चाटयोच्चाटय विनाशय विनाशय वशीकुरु कुरु चौरसमूहान् सम्यगन्मूलयोन्मूलय हुं फट् स्वाहा ॥

             समर्पण-ध्यानम्
 
दोर्दण्डैकसहस्रसम्मितकरेष्वेतेष्वजस्त्रंदधत्,
कोदण्डं स्वशरैरुदनविशिखैरुद्यद्विवस्वत्प्रभः ।
ब्रह्माण्डं परिपूरयन्स्विदखिलं गण्डस्थलालोलितम्,
द्योतत्कुण्डलमण्डितंविजयतेश्रीकार्तवीर्यार्जुनः।। १ ।।
ॐ कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रभृत् ।
तस्य स्मरणमात्रेण हृतं नष्टञ्च लभ्यते ।।२।।
ॐ कार्तवीर्यः खलद्वेषी कृतवीर्यसुतो बली ।
सहस्रबाहुः शत्रुघ्नो रक्तवासा धनुर्धरः ।। ३ ।।
रक्तगन्धो रक्तमाल्यो राजा स्मर्तुरभीष्टदः)।
द्वादशैतानि नामानि कार्तवीर्यस्य यः पठेत् ।। ४ ।।
अनष्टद्रव्यता तस्य नष्टद्रव्यस्यचागमः ।
सम्पदस्तस्य जायन्ते राजानश्च वशङ्गताः ।।५ ।।
आनयेत्स तु दूरस्थं क्षेमलाभयुतं प्रियम् ।
हैहयाधिपतेः स्तोत्रं सहस्रावर्तितं यदि ।
वाञ्छितार्थफलं दद्यात् शूद्राद्यैर्न श्रुतं यदि ।।६।।
दक्षे पञ्चशतं बाणान् वामे पञ्चशतं धनुः ।
तमेव शरणं प्राप्तः सर्वतो रक्ष रक्ष माम ।। ७ ।।

।। श्रीकार्तवीर्यार्जुनस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥॥

    किसी ने आपका धन लिया है वापिस नहीं कर रहा है - कहीं किसी कारण वश आपको मिलने वाला धन फंसा हुआ है है, तो यह अनुष्ठान (मन्त्र जप)  11000 
किसी (इसकी विधि के जानकार) ब्राह्मण द्वारा कराये जाने पर निश्चित ही उस धन की प्राप्ति होती है ||


नोट- यह कहीं से कापी नहीं किया है लिखने में यदि कुछ त्रुटि रह गई हो तो अवश्य सूचित करें, 
      धन्यवाद 🙏🙏🙏 ऊँ काली