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शनिवार, 23 जुलाई 2022

मंगल दोष

प्रायः यदि मंगल बृहस्पति से युक्त अथवा दृष्ट हो तो यह घोषणा कर दी जाती है कि मंगल-दोष समाप्त हो गया । किन्तु यह विचार सत्य से नितान्त परे है। आघु निक शोध कार्यों द्वारा सिद्ध हो चुका है एवं मेरे अनुभव द्वारा भी प्रमाणित हो चुका है कि मंगल के साथ बृहस्पति की संयुति कुज-दोष को अनेक आयामों में परिवर्तित कर देती है । इस सन्दर्भ में कल्याणवर्मा की सारावली का गम्भीरतापूर्वक अनुशीलन करना चाहिए। अतएव यदि मंगल १, २, ४, ७, ८ एवं १२वें भाव में संस्थित हो एवं बृहस्पति से युक्त हो, अथवा बृहस्पति और मंगल एक दूसरे से सप्तमस्य हों तो कु-दोष सहस्राधिक परिवर्द्धित मानना चाहिए ।

यदि शुक्र, मंगल और बृहस्पति सहसंस्थित हों, परस्पर सप्तमस्थ हों, परस्पर केन्द्र गत हों तो कुज-दोष अत्यन्त तीक्ष्ण हो जाता है।

उपर्युक्त दोनों स्थितियों में न्यायोचित होगा कि मंगल दोष के निरस्तीकरण के लिए वर कन्या के जन्मांगों में एक ही प्रवृत्ति का कुज-दोष हो । यदि कन्या की कुण्डली में बृहस्पति के प्रभाव-स्वरूप कुज दोष की तीक्ष्णता परिवर्तित हो रही हो तोवर के जन्मांग में भी ऐसा ही संयोग होना चाहिए । अन्यथा विघटनात्मक स्थितियाँ समुत्पन्न हो जाती हैं।

यदि कन्या के जन्मांग में मंगल अष्टम भावस्थ हो तो वर के जन्मांग में मंगल सप्तमभावस्थ नहीं होना चाहिए । प्रायः इस स्थिति में ज्योतिषी मंगल दोष विनष्ट होने का अनुमान कर लेते हैं । किन्तु दोनों जन्मांगों में कुज दोष उपस्थित होने का सिद्धान्त यहाँ व्यवहार्य नहीं है । वर की कुण्डली का सप्तमभावस्थ मंगल पत्नी के स्वास्थ्य के निमित्त विपरीत है एवं कन्या की कुण्डली का अष्टमभावस्थ मंगल उसके अपने स्वास्थ्य के लिए विध्वंसक है। इस प्रवृत्ति के जन्मांगों की तुलना करते समय विवाह की अनुमति नहीं प्रदान करनी चाहिए। अन्यथा पाणिगृहीता पत्नी असाध्य व्याधि से ग्रस्त रहती है अथवा अकाल-काल-कवलित होती है ।

यदि जन्मांग में दोपयुक्त मंगल शनि से युक्त अथवा दृष्ट हो तो मंगल-दोप परिवद्धित हो जाता है ।

बृहस्पति की राशि में संस्थित मंगल दोष की दृष्टि से अत्यन्त घातक होता है । इस पर विशिष्ट शोध हुई है । सारावली में कल्याणवर्मा ने मंगल की इस स्थिति को अशुभ बताया है । परस्पर सप्तमस्थ शनि-मंगल मंगलदोष को वद्धित करते हैं ।

यद्यपि स्वगृही मंगल अपेक्षाकृत न्यून घातक होता है किन्तु मेष राशि संस्थित मंगल

प्रवल घातक होता है ।

पापाक्रान्त मंगल अत्यन्त दोषपूर्ण सिद्ध होता है ।

उपर्युक्त स्थितियों के सतर्क परीक्षण निरीक्षण के उपरान्त हो किसी निष्कर्ष की

घोषणा करनी उचित होगी। मंगल की अपवाद परक दोष स्थितियाँ

मंगल दोष के विषय में अन्तिम अथवा अन्यतम निर्णय देने के पूर्व स्थितियों और योगों का भली-भाँति अध्ययन करना चाहिए । किंचित् असावधानी अत्यन्त घातक निष्कर्ष प्रदान कर सकती है । मंगल दोष के संदर्भ में निम्नलिखित अपवादों को सर्वदा चिन्तन-पटल पर चेतन रखना चाहिए। इन स्थितियों में मंगल-दोष नहीं होता :

यदि मंगल चतुर्थ अथवा सप्तम भावस्य हो तथा किसी क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट न हो एवं इन भावों में मेष, कर्क, वृश्चिक अथवा मकर राशियाँ विनियोजित हों । यदि लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में सबल चन्द्र, बृहस्पति अथवा बुध की मंगल के साथ सहसंस्थिति हो ।

यदि वृष या तुला राशि परक मंगल चतुर्थ अथवा सप्तम भावस्थ हो ।

यदि मिथुन अथवा कन्या परक मंगल द्वितीय भावस्थ हो । यदि बृहस्पति की राशि में अष्टमभावस्थ मंगल हो । परन्तु मंगल वृहस्पति की

शोध के पश्चात् यह स्थिति मंगल दोष में वृद्धि का कारण है न कि निरस्तीकरण का

यदि मंगल कर्क अथवा मकर राशिगत हो ।

यदि मंगल अश्विनी, मघा अथवा मूल नक्षत्र में संस्थित हो ।

की राशि में द्वादशभावस्य मंगल हो । यदि शुक्र

यदि अष्टमभावस्थ मंगल से युक्त जन्मांग की लग्न कर्क या सिंह हो ।

यदि वृष अथवा सिंह लग्न संयुक्त जन्मांग में मंगल द्वितीय भावस्थ हो ।

यदि मंगल सूर्य की राशि अथवा चन्द्र की राशि अथवा आत्मोच्च राशि में अथवा

अर्थात् यदि वर और कन्या के जन्मांग में मंगल द्वितीय, द्वादश, चतुर्थ, सप्तम, अथवा अष्टम भाव में लग्न, चन्द्र अथवा शुक्र से समभाव में स्थित हो तो समता का मंगलदोष होने के कारण वह प्रभावहीन हो जाता है । परस्पर सुख, धनधान्य, संतति, स्वास्थ्य एवं मित्रादि की उपलब्धि रहती है ।

जामित्रे च यदा सौरिलग्ने वा हिदुकेऽथवा । अष्टमे द्वादशे वाऽपि भौमदोषविनाशकृत् ॥

अर्थात् यदि एक जन्मांग में मंगल १, २. ३, ४, ७, ८, १२ में संस्थित हो तथा द्वितीय जन्मांग में शनि इन्हीं भावों में से किसी में संस्थित हो तो मंगल दोष निरस्त हो जाता है ।

सबले गुरौ भृगौ वा लग्ने द्यूनेऽपि वाऽथवा भीमे ।

वक्रिणि नीचगृहे वार्कस्थे न कुजदोषः ॥ अर्थात् यदि लग्न अथवा सप्तम भाव में शुक्र अथवा वृहस्पति संस्थित हो एवं मंगल दुर्बल हो ऐसा कहा गया है परन्तु शोध से सिद्ध हुआ कि मंगल पर बृह स्पति के प्रभाव से मंगल दोष में वृद्धि होती है ।

यदि मंगल शनि द्वारा संचालित राशि में हो । उपर्युक्त योग-संयोगों के परिणामस्वरूप मंगल-दोष नहीं होता । अतएव इन्हें कंठाग्र कर लेना चाहिए ।

मंगल दोष के परिहार :

मंगल-दोष ने जनमानस में आतंक के इतने सशक्त सूत्र प्रारोपित कर लिये हैं कि मंगली जातक अथवा जातिका का विवाह एक दुर्धर्षं समस्या बन जाती है । किन्तु सुविधानित माध्यमों से विचार करने पर इसके परिहार के अनेकानेक विन्दु स्पष्ट हो जाते हैं | मंगल—दोष को सुनिश्चित करने के अनन्तर निम्नांकित निदानों का आचार्या नुमोदित उपयोग-प्रयोग करना चाहिए ।

मंगल दोष दूषित जातिका को एक पंचमुखी दीप प्रज्ज्वलित करके मंगल ग्रह एवं अपने इष्ट का सविधि पोडशोपचार अथवा पंचोपचार पूजन करना चाहिए। पूजनो परान्त श्री मंगल चण्डिका स्तोत्र का १०८ दिवस तक नित्यप्रति ७ अथवा २१ जप करना चाहिए ।

"रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मंगलचंडिके ।

हारिके विपदां राशे हर्षमंगलकारिके ॥

हर्षमंगलदक्षे हर्ष मंगलदायिके ।

शुभे मंगलदक्षे च शुभे मंगलचंडिके ॥
मंगले मंगला च सर्वमंगलमंगले । सदा मंगलदे देवि सर्वेषां मंगलालये ॥ "

माँ गौरी का पंचमुखी दीप प्रज्ज्वलित करके पंचोपचार अथवा षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। तत्पश्चात् १०८ दिन तक ७ अथवा २१ वार पार्वती स्वयंवर का पाठ करना चाहिए ।

"बालार्कायुतसत्प्रभां करतले लोलम्बमालाकुलां मालां सन्दधतीं मनोहरतनुं मन्दस्मितोद्यन्मुखीम् ।

मन्दं मन्दमुपेयुषीं वरयितुं शंभु जगन्मोहिनीं

बन्दे देवमुनीन्द्रवन्दितपदां इष्टार्थदां पार्वतीम् ॥ " मंगल असमराशि - संस्थित होने पर भगवान् सुब्रह्मण्यम् की आराधना करनी हितकर होती है ।

मंगल समराशि - संस्थित होने पर अम्बाला की उपासना करनी चाहिए । मंगल के वैदिक मंत्र का १०८ दिवस तक ७ अथवा २१ माला जप करना चाहिए। जाशु प्रभाव के लिए १०,००० आवृत्ति में जप का एक पुरश्चरण करना चाहिए ।

यदि कन्या भीषण मंगल-दोष दूषित हो तो भावी सौभाग्य को समयोचित करने के लिए कुम्भ, पीपल अथवा विष्णु वर की प्राणप्रतिष्ठित प्रतिमा के साथ परिक्रमा करके चिरंचीव वर के साथ परिणय सम्पन्न हो तो दोप प्रभावी नहीं होता, पुनर्विवाह का दोष भी आक्षेपित होने से मुक्ति मिलती है । यह क्रिया अत्यन्त गुप्त रूप से सम्पन्न होनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि कन्या स्वयं आस्पद (कुम्भ, पीपल, विष्णु ) का वरण करे । पिता इसमें निष्क्रिय रहे क्योंकि शास्त्रानुसार कन्या का दान एक बार ही किया जाता है । यदि वर से पूर्व आस्पद को कन्या दान दे दिया जायेगा तो पुनः दान का महापाप आरोपित होगा। अतएव पूर्व परिणय में कन्या स्वयं वरण करे । किन्तु यह परिणय सुपर्णं विधि विधान के साथ निष्पन्न हो, अन्यथा दोष का प्रामाणिक परिहार नहीं होगा । गोपनीयता इस विधि की प्राथमिक और अंतिम प्रतिक्षा होनी चाहिए । परिणय के निमित्त प्रेषणीय लग्न पत्रिका से पूर्व वह परिहार प्रक्रिया संपन्न होनी चाहिए ।

अमंगल व अशुभ की निवृत्ति व शुभ की सिद्धि के लिए मंगल यंत्र प्रयोग एक अमोघ उपाय सिद्ध हुआ है इसका विधान इस प्रकार है ।
सावित्री व्रत

मंगल दोष दूषित जातिकाओं को सविधि-सश्रद्धा सावित्री व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इस व्रत का विधि-विस्तार प्रतादि से संबद्ध अध्याय में उद्द्भुत है।

मंगला गौरी व्रत

वैधव्य दोष नाश के लिये यह सर्वोत्तम व्रत है जो स्वयं भगवान् शंकर ने सनत्कुमार को बताया था ।

किसी कन्या के जन्मांग में यदि प्रबल कुज दोप हो अथवा वैधव्य कारक ग्रह संस्थित हों तो इस व्रत को निश्चय ही करना चाहिये। इस व्रत को ५ वर्ष तक कर लेने पर वृद्धावस्था में भी वैधव्य नहीं प्राप्त होता है। यह एक अत्यन्त परीक्षित प्रयोग है।

मंगल दोष निर्धारण एक तुलनामत्क गणितीय प्रविधि

प्रस्तुत विवेचन अत्यन्त विरलज्ञात तथ्य है । इस प्रविधि से मङ्गल दोष दूषित जन्मांगों का विश्लेषण करके प्रामाणिक रूपेण दोप की क्षमता की घोषणा की जा सकती है । प्रायः मङ्गली जातिका का परिणय मङ्गली जातक से करने की शास्त्रानु मोदित लोकरीति है। किन्तु मेलापक के समय मात्र सामान्य रूप से दृष्टिपात उचित नहीं होता, दोष की प्रभाववत्ता एवं भावानुसार उसकी फलवत्ता पर भी ध्यान केन्द्रित रहना चाहिए, यथा चतुर्थ भावस्य अथवा द्वादश भावस्थ मङ्गल मष्टमभावस्थ अथवा सप्तम भावस्थ मङ्गल की अपेक्षा न्यून प्रहार क्षमता रखता है । अतएव इनकी परस्पर तुलना करके दोप के विरेचित होने का निर्णय भ्रामक सिद्ध होता है । वर्तमान काल में ज्योतिष के एक विश्वविद्युत व्यक्तित्व ने स्वमत दिया है कि वर-वधू के जन्मांगों का तुलनात्मक गणितीय विश्लेषण करके निष्कर्ष प्राप्त करना चाहिए कि किसका मङ्गल दोष प्रबल है और किसका क्षीण बल ।

मङ्गल, शनि, सूर्य, राहु और केतु क्रूर ग्रह परिगणित किये गये हैं । इनके १, २, ४, ७, ८, १२ भाव में संस्थित होने से किसी न किसी सन्दर्भ में अवांछित क्लेशद परिस्थितियां समुत्पन्न होती हैं। इनका भी तुलनात्मक विवेचन करना चाहिए । यथा उच्चराशिस्थ मङ्गल शत्रुराशिस्थ अथवा नीचराशिस्थ मङ्गल की अपेक्षा कम, दूषित होता है । दृष्टि इत्यादि के परिणामस्वरूप परिवर्तित परिवर्द्धित होता रहता है । उनकी प्रभावक्षमता एवं मारक क्षमता की भारात्मकता निम्नलिखित प्रविधि से उपलब्ध करनी चाहिए :



स्वगृही हो ।

यदि स्वराशिगत मङ्गल चतुर्थ, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भावस्थ हो ।

यदि चतुर्थ भावस्य मङ्गला अथवा वृष राशिगत हो ।

यदि द्वादशभावस्थ मङ्गल कन्या, मिथुन, वृष अथवा तुला राशिगत हो । दम्पत्योर्जन्मकाले व्ययधनहियुके सप्तमे लग्नरन्ध्रे

लग्नाच्चन्द्राच्च शुक्रादपि भवति यदा भूमिपुत्रो द्वयोर्वे । तत्साम्यात्पुत्रमित्रप्रचुरधनपती दम्पती दीर्घकालं

जीवतामेकहा न भवति मृतिरिति प्रातुरनात्रिमुख्याः ॥सावित्री व्रत

मंगल दोष दूषित जातिकाओं को सविधि-सश्रद्धा सावित्री व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इस व्रत का विधि-विस्तार प्रतादि से संबद्ध अध्याय में उद्द्भुत है।

मंगला गौरी व्रत

वैधव्य दोष नाश के लिये यह सर्वोत्तम व्रत है जो स्वयं भगवान् शंकर ने सनत्कुमार को बताया था ।

किसी कन्या के जन्मांग में यदि प्रबल कुज दोप हो अथवा वैधव्य कारक ग्रह संस्थित हों तो इस व्रत को निश्चय ही करना चाहिये। इस व्रत को ५ वर्ष तक कर लेने पर वृद्धावस्था में भी वैधव्य नहीं प्राप्त होता है। यह एक अत्यन्त परीक्षित प्रयोग है।

मंगल दोष निर्धारण एक तुलनामत्क गणितीय प्रविधि

प्रस्तुत विवेचन अत्यन्त विरलज्ञात तथ्य है । इस प्रविधि से मङ्गल दोष दूषित जन्मांगों का विश्लेषण करके प्रामाणिक रूपेण दोप की क्षमता की घोषणा की जा सकती है । प्रायः मङ्गली जातिका का परिणय मङ्गली जातक से करने की शास्त्रानु मोदित लोकरीति है। किन्तु मेलापक के समय मात्र सामान्य रूप से दृष्टिपात उचित नहीं होता, दोष की प्रभाववत्ता एवं भावानुसार उसकी फलवत्ता पर भी ध्यान केन्द्रित रहना चाहिए, यथा चतुर्थ भावस्य अथवा द्वादश भावस्थ मङ्गल मष्टमभावस्थ अथवा सप्तम भावस्थ मङ्गल की अपेक्षा न्यून प्रहार क्षमता रखता है । अतएव इनकी परस्पर तुलना करके दोप के विरेचित होने का निर्णय भ्रामक सिद्ध होता है । वर्तमान काल में ज्योतिष के एक विश्वविद्युत व्यक्तित्व ने स्वमत दिया है कि वर-वधू के जन्मांगों का तुलनात्मक गणितीय विश्लेषण करके निष्कर्ष प्राप्त करना चाहिए कि किसका मङ्गल दोष प्रबल है और किसका क्षीण बल ।

मङ्गल, शनि, सूर्य, राहु और केतु क्रूर ग्रह परिगणित किये गये हैं । इनके १, २, ४, ७, ८, १२ भाव में संस्थित होने से किसी न किसी सन्दर्भ में अवांछित क्लेशद परिस्थितियां समुत्पन्न होती हैं। इनका भी तुलनात्मक विवेचन करना चाहिए । यथा उच्चराशिस्थ मङ्गल शत्रुराशिस्थ अथवा नीचराशिस्थ मङ्गल की अपेक्षा कम, दूषित होता है । दृष्टि इत्यादि के परिणामस्वरूप परिवर्तित परिवर्द्धित होता रहता है । उनकी प्रभावक्षमता एवं मारक क्षमता की भारात्मकता निम्नलिखित प्रविधि से उपलब्ध करनी चाहिए :वर कन्या के जन्मांग में मंगल दोष की तुलना

अष्टम

सप्तम

चतुर्थ

द्वादश

मंगल शनि

सूर्य मंगल

शनि

राहू

राह

केतु

केतु

१००

७५

५०

३७.५०

सूर्य

नीच राशि में

५०

२५

९०

६७.५०

४५

४५

३३७५

२२.५०

पु राशि में

सम राशि में

८०

६०

४०

४०

३०.०० ३५ ३५ २६-२५ १७.५०-२

२०.००

७०

५२.५०

६०

४५

३०

मित्र राशि में

स्व राशि में

३०

२२.५० १५००

उच्च राशि में

५० ३७५०

२५ २५ १८.७५ १२५०

उपरिअंकित तालिका में एक विशिष्ट तथ्य का समावेश है । मंगल का दोष १,२,४,७,८,१२ भाव में सर्वाधिक होता है । मंगल शनि राहु और केतु इन स्थानों में ७५ प्रतिशत दुपकत्व रखते हैं । सूर्य इन भावों में ५० प्रतिशत ही दोष-वल प्रदर्शित करता है। इन विन्दुओं का अन्तर् - अनुधावन उपरिस्थित तालिका में है ।

तालिका के निर्देश में वर-कन्या के जन्मांगों का मंगल दोष के सन्दर्भ में सतर्क तुलनात्मक गणितीय विश्लेषण करना चाहिए। यदि कन्या के जन्मांग में मंगल दोष को दोष-क्षमता वर के जन्मांग की तुलना में मात्र २५ प्रतिशत अधिक है तो परिणय निश्चित किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। यदि वर के जम्मांग का मंगल दोष कन्या के जन्मांग की अपेक्षा परिवर्धमान हो तो परिणय का निषेध करना चाहिए। उपर्युक्त तालिकापरक विश्लेषण ज्योतिष-गौरव डॉ० बी० वी० रामन् के एक सिद्धान्त को केन्द्रीय तत्व मानकर प्रारूपित किया गया है ।

इस प्रकार विषय समाहार करते हुये कहा जा सकता है कि मङ्गल दोष एक

विवादास्पद एवं महत्वपूर्ण विषय है। अतएव सर्वप्रथम जन्मांग में मंगल दोष का

सुविधानित निश्चय करना चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि दोष-निरस्ति का कोई

सूत्र तो व्यवहृत नहीं हो रहा है। इस संदर्भ में मङ्गल की अपवादपरक दोषस्थितियों

का अभिज्ञान अत्यन्त सहायक होगा। यदि मङ्गल-दोष निरस्त नहीं हो रहा है तो

परिहार के प्रयास सक्रिय करने चाहिए। परिहार का चयन दोष की तीक्ष्णता अथवा

निर्बलता के आधार पर किया जाता है । किन्तु दूषित होने पर परिहार अन्यतम.

आवश्यकता है । अन्यथा दाम्पत्य विघटन के अध्याय का पुरोवाक् ही सिद्ध होगा 1.

जनसामान्य में इस संदर्भ में जो भ्रान्तियां प्रचलित है एवं जिन अनर्गल तथ्यों का

गहित स्वार्थों के लिए भयात्मक प्रचार करके चंचुप्रवेशी ज्योतिषाचार्य स्थितियों की

वक्र व्याख्या करते हैं, उनके विषय में उपरिविवेचित शोध बिन्दुओं का अवलंब ग्रहण

करके आख्या, आख्यायक एवं आख्येय को रेखांकितेय बनाया जा सकता है।

-:०: साभार डॉ. आशुतोष जी. 🙏