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मंगलवार, 28 मार्च 2017

ब्रह्मास्त्र महा विद्या श्रीबगलामुखी स्तोत्र

     ब्रह्मास्त्र महाविद्या श्रीबगलामुखी  स्तोत्र(रुद्रयामल तंत्र)



विनियोगः- ॐ अस्य श्रीब्रह्मास्त्र-महा-विद्या-श्रीबगला-मुखी स्तोत्रस्य श्रीनारद ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री बगला-मुखी देवता, ‘ह्ल्रीं’ बीजं, ‘स्वाहा’ शक्तिः, ‘बगला-मुखि’ कीलकं, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-गतीनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं पाठे विनियोगः ।

ऋष्यादि-न्यासः- श्रीनारद ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्री बगला-मुखी देवतायै नमः हृदि, ‘ह्ल्रीं’ बीजाय नमः गुह्ये, ‘स्वाहा’ शक्त्यै नमः नाभौ, ‘बगला-मुखि’ कीलकाय नमः पादयोः, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-गतीनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं पाठे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।

षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास
ह्ल्रां ॐ ह्ल्रीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ह्ल्रीं बगलामुखि तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ह्ल्रूं सर्व-दुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ह्ल्रैं वाचं मुखं पदं स्तम्भय अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं
ह्ल्रौं जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ह्ल्रः बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं ॐ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्

                   -:ध्यानः-

      मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्याम्,
सिंहासनोपरि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
          पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीम्,
देवीं नमामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।। १

      जिह्वाग्रमादाय करेण देवीम्,
वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
       गदाऽभिघातेन च दक्षिणेन,
पीताम्बराढ्यां द्वि-भुजां नमामि ।। २

                         स्तोत्र
चलत्-कनक-कुण्डलोल्लसित-चारु-गण्ड-स्थलीम्,
लसत्-कनक-चम्पक-द्युतिमदिन्दु-बिम्बाननाम् ।
गदा-हत-विपक्षकां कलित-लोल-जिह्वाऽञ्चलाम्,
स्मरामि बगला-मुखीं विमुख-वाङ्-मनस-स्तम्भिनीम् ।। १

पीयूषोदधि-मध्य-चारु-विलसद्-रत्नोज्जवले मण्डपे,
तत्-सिंहासन-मूल-पतित-रिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।
स्वर्णाभां कर-पीडितारि-रसनां भ्राम्यद् गदां विभ्रतीम्,
यस्त्वां ध्यायति यान्ति तस्य विलयं सद्योऽथ सर्वापदः ।। २

देवि ! त्वच्चरणाम्बुजार्च-कृते यः पीत-पुष्पाञ्जलिम्,
भक्त्या वाम-करे निधाय च मनुं मन्त्री मनोज्ञाक्षरम् ।
पीठ-ध्यान-परोऽथ कुम्भक-वशाद् बीजं स्मरेत् पार्थिवम्,
तस्यामित्र-मुखस्य वाचि हृदये जाड्यं भवेत् तत्क्षणात् ।। ३

वादी मूकति रंकति क्षिति-पतिर्वैश्वानरः शीतति,
क्रोधी शाम्यति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।
गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जडति त्वन्मन्त्रिणा यन्त्रितः,
श्री-नित्ये, बगला-मुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। ४

मन्त्रस्तावदलं विपक्ष-दलने स्तोत्रं पवित्रं च ते,
यन्त्रं वादि-नियन्त्रणं त्रि-जगतां जत्रं च चित्रं च ते ।
मातः ! श्रीबगलेति नाम ललितं यस्यास्ति जन्तोर्मुखे,
त्वन्नाम-स्मरणेन संसदि मुख-स्तम्भो भवेद् वादिनाम् ।। ५

दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्र्य-विद्रावणम्,
भूभृत्-सन्दमनं चलन्मृग-दृशां चेतः समाकर्षणम् ।
सौभाग्यैक-निकेतनं सम-दृश कारुण्य-पूर्वेक्षणम्,
मृत्योर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयं वपुः ।। ६

मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वां च संकीलय,
ब्राह्मीं मुद्रय दैत्य-देव-धिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।
शत्रूंश्चूर्णय देवि ! तीक्ष्ण-गदया गौरांगि, पीताम्बरे !
विघ्नौघं बगले ! हर प्रणमतां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ! ।।

मातर्भैरवि ! भद्र-कालि विजये ! वाराहि ! विश्वाश्रये !
श्रीविद्ये ! समये ! महेशि ! बगले ! कामेशि ! वामे रमे !
मातंगि ! त्रिपुरे ! परात्पर-तरे ! स्वर्गापवर्ग-प्रदे !
दासोऽहं शरणागतः करुणया विश्ववेश्वरि ! त्राहि माम् ।। ८

त्वं विद्या परमा त्रिलोक-जननी विघ्नौघ-संच्छेदिनी,
योषाकर्षण-कारिणि पशु-मनः-सम्मोह-सम्वर्द्धिनी ।
दुष्टोच्चाटन-कारिणी पशु-मनः-सम्मोह-सन्दायिनी,
जिह्वा-कीलन-भैरवी विजयते ब्रह्मास्त्र-विद्या परा ।। ९

विद्या-लक्ष्मीर्नित्य-सौभाग्यमायुः,
पुत्रैः पौत्रैः सर्व-साम्राज्य-सिद्धिः ।
मानं भोगो वश्यमारोग्य-सौख्यम्,
प्राप्तं सर्वं भू-तले त्वत्-परेण ।। १०

पीताम्बरां द्वि-भुजां च, त्रि-नेत्रां गात्र-कोमलाम् ।
शिला-मुद्-गर-हस्तां च, स्मरामि बगला-मुखीम् ।। ११

पीत-वस्त्र-लसितामरि-देह-प्रेत-वासन-निवेशित-देहाम्,
फुल्ल-पुष्प-रवि-लोचन-रम्यां दैत्य-जाल-दहनोज्जवल-भूषां ।
पर्यंकोपरि-लसद्-द्विभुजां कम्बु-जम्बु-नद-कुण्डल-लोलाम्,
वैरि-निर्दलन-कारण-रोषां चिन्तयामि बगलां हृदयाब्जे ।। १२

गेहं नाकति, गर्वितः प्रणमति, स्त्री-संगमो मोक्षति,
द्वेषी मित्रति, पातकं सु-कृतति, क्ष्मा-वल्लभो दासति ।
मृत्युर्वैद्यति, दूषण सु-गुणति, त्वत्-पाद-संसेवनात्,
वन्दे त्वां भव-भीति-भञ्जन-करीं गौरीं गिरीश-प्रियाम् ।। १३

आराध्या जदम्ब ! दिव्य-कविभिः सामाजिकैः स्तोतृभि-
र्माल्यैश्चन्दन-कुंकुमैः परिमलैरभ्यर्च्चिता सादरात् ।
सम्यङ्-न्यासि-समस्त-निवहे, सौभाग्य-शोभा-प्रदे !
श्रीमुग्धे बगले ! प्रसीद विमले, दुःखापहे ! पाहि माम् ।। १४

यत्-कृतं जप-सन्नाहं, गदितं परमेश्वरि !
दुष्टानां निग्रहार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। १५

सिद्धिं साध्येऽवगन्तुं गुरु-वर-वचनेष्वार्ह-विश्वास-भाजाम्,
स्वान्तः पद्मासनस्थां वर-रुचि-बगलां ध्यायतां तार-तारम् ।
गायत्री-पूत-वाचां हरि-हर-नमने तत्पराणां नराणाम्,
प्रातर्मध्याह्न-काले स्तव-पठनमिदं कार्य-सिद्धि-प्रदं स्यात् ।। १६

विद्या लक्ष्मीः सर्व-सौभाग्यमायुः,
पुत्रैः पौत्रौः सर्व-साम्राज्य-सिद्धिः ।
मानं भोगो वश्यमारोग्य-सौख्यम्,
प्राप्तं सर्वं भू-तले त्वत्-परेण ।। १७

यत्-कृतं जप-संध्यानं, चिन्तनं परमेश्वरि !
शत्रूणां स्तम्भनार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। १८

               ।। फल-श्रुति ।।

नित्यं स्तोत्रमिदं पवित्रमिह यो देव्याः पठत्यादरात्,
धृत्वा यन्त्रमिदं तथैव समरे बाहौ करे वा गले ।
राजानोऽप्यरयो मदान्ध-करिणः सर्पा मृगेन्द्रादिकाः,
ते वै यान्ति विमोहिता रिपु-गणा लक्ष्मोः स्थिरा सर्वदा ।। १

संरम्भे चौर-संघे प्रहरण-समये बन्धने व्याधि-मध्ये,
विद्या-वादे विवादे प्रकुपित-नृपतौ दिव्य-काले निशायाम् ।
वश्ये वा स्तम्भने वा रिपु-वध-समये निर्जने वा वने वा,
गच्छँस्तिषठँस्त्रि-कालं यदि पठति शिवं प्राप्नुयादाशु धीरः ।। २

अनुदिनमभिरामं साधको यस्त्रि-कालम्,
पठति स भुवनेऽसौ पूज्यते देव-वर्गैः ।
सकलममल-कृत्यं तत्त्व-द्रष्टा च लोके,
भवति परम-सिद्धा लोक-माता पराम्बा ।। ३

ब्रह्मास्त्रमिति विख्यातं, त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
गुरु-भक्ताय दातव्यं, न देयं यस्य कस्यचित् ।। ४

।। श्रीरुद्रयामले उत्तर-खण्डे श्रीब्रह्मास्त्र-विद्या श्रीबगला-मुखी स्तोत्रम् ।।
   

गुरुवार, 23 मार्च 2017

(विनायक रुष्ट होने पर कष्ट श्री कृष्ण द्वारा वर्णित ,,,,,,श्लोक३/४ अध्याय १४४ उत्तर पर्व, भविष्य पुराण )

(विनायक रुष्ट होने पर कष्ट,,,,,,श्लोक३/४ अध्याय १४४ उत्तर पर्व, भविष्य   )
    स्वप्न में जल में डूबना , मुंडित सिरों को देखना ,गेरुआ वस्त्र , मस्तक रहित सिर  देखना बिना किसी कारण खुद का रोना/दुखी देखना,
    यह स्वप्न विनायक द्वारा गृहीत होने पर दिखते हैं,(पहचान है).||

   विनायक द्वारा गृहीत होने पर ,
राजपुत्र भी राज्य प्राप्त नहीं कर पाता

  कुमारी पति को प्राप्त नहीं कर पाती

गर्भ होने पर भी पुत्र प्राप्त न होना.

व्यापारी व्यापार में लाभ न सफल होगा.
 
  योग्य होने पर भी आजीविका कार्य (नौकरी) न मिलना
 
     इसका उपाय भी भविष्य पुराण में वर्णित है , कि किस प्रकार हम एक अनुष्ठान करें
     पहले गणेश जी का विधानानुसार पूजन फिर अभिमन्त्रित जल से यजमान का अभिषेक करें
 तत्पश्चात कुशा को दाहिने हाथ में धारण करके सरसों तेल से हवन करें
  इसके पश्चात बलि नैवेद्य अर्पण करके मण्ल पर अर्ध्य दें , तत्पश्चात पुन: माता अम्बिका की राजोपचार विधि से पूजन करें , ब्राह्मणों को भोजन करायें ,
               गुरु जी को 
(क्युकि इस पूजन के बाद गुरु का आशीर्वाद आवश्यक है, यदि गुरु तक  किसी कारण  वश आप न पहुँच सकें तो फिर महादेव का पूजन कर ) वस्त्र फल दक्षिणा अर्पण करें.
    इस पूजन से , सभी बाधाएँ नष्ट होती हैं , मनुष्य लक्ष्मी प्राप्त करता है.
                   धन्यवाद
(यदि आप कापी पेस्ट करते हैं तो कृपया सूचना देकर करें)

सोमवार, 20 मार्च 2017

सर्पशाप योग , नागपंचमी मेॆ करें नाग पूजन

पुराणों और संहिताओं में वर्णित (मारतण्ड)
       "सर्प श्राप" दोष   जिसके कारण पुत्र प्राप्ति में बाधा या असमय पुत्र क्षय हो जाता है, 



 पुत्र  स्थानेगते राहौ कुजेनापि निरीक्षते |
कुजक्षेत्र गते वापि सर्प शपात् सुतक्षय: ||
      पंचम स्थान में राहु हो मंगल देखे या मंगल की राशि में है तो सर्प शाप के कारण संतान की हानि होती है,
पुत्रेशे राहुसंयुक्ते पुत्रस्थे भानु नन्दने |
चन्द्रदृष्टे युते वापि सर्प शापात सुतक्षय: ||

          पंचमेश राहु के साथ ,पंचम भाव में शनि चंद्र से युक्त हो बैठा है तो सर्प शाप. 

कारके राहु संयुक्ते पुत्रेशे बलविवर्जिते |
विलग्नेशे भौमयुते सर्प शापात सुत क्षय: ||
    
      कारक ग्रह गुरु के साथ यदि राहु हो पंचमेश बलहीन हो (अस्त अथवा नीच हो)  और लग्नेश मंगल से युत हो तो सर्प शाप दोष 


कारके भौम संयुक्ते लग्ने च राहुसंयुते |
पुत्रस्थानेश्वरे दुस्थे सर्प सापात सुत क्षय : || 

         लग्न में राहु, गुरु मंगल से युक्त और पंचमेश ६,८,१२, भाव में हो तो सर्प शाप दोष, 
        गुरु राहु दृष्ट हो , पंचमेष मंगल के साथ हो  तो सर्प श्राप 
पंचम भाव में सूर्य शनि मंगल राहु बुध गुरु साथ हों , पंचमेश व लग्नेश निरबल हों तो सर्प श्राप दोष.
 यदि पंचम भाव में ७या८ राशि पर राहु हो और बुध से दृष्ट हो तो सर्प श्राप दोष ,  

       हमने जब कालसर्प योग को नकारा , तो कुछ विद्वानों ने कहा कि पुराणों  में ,  कालसर्प दोष को ही सर्प दोष बताया गया है,    उसी के निराकरण हेतु सर्प दोष पर यह लेख है,
     
   

       (  यह कोई Copy Pest नहीं किया गया है,   आपसे निवेदन है कि यदि आप ऐसा करते हैं तो कृपया बताकर करें )

        
     

रविवार, 19 मार्च 2017

चद्रयोग कथन (नारदपुराण)


नारद पुराण में अनेक योगों का वर्णन है, आप ज्योतिषी बॆधुओं के लिए हमने यह संकलन किया है,

         चद्रयोग कथन (नारदपुराण , पूर्वभाग द्वतीय पाद श्लोक २००-२०२)
     



यदि  चन्द्रमा से द्वतीय भाव में , सूर्य को छोड़कर कोई अन्य ग्रह हो तो "सुनफा" योग. चनद्रमा से १२वें(सूर्य के अतिरिक्त)  में हो तो "अनफा" योग.
 और दोनों २,१२वें में हों तो "दुरुधरा" योग ,
 चन्द्रमा से २,१२ में कोई भी ग्रह न हों तो "केमद्रुम" योग होता है.
सुनफा योग-
             जातक स्वयं के पुरुषार्थ से  कमाये धन पर जीविका  चलाता है व धनवान बनता है.
अनफा योग -
       शुशील , स्वस्थ शरीर वाला, विख्यात व सुन्दर स्वरूप वाला होता है.
दुरुधरा-
        धनवान, दानी ,भोगी , सुखी,
केमद्रुम -
      दुखी, मलिन कांति, निर्धन होता है.

  नोट -  पूर्ण कुण्डली का विश्लेषण किये बिना किसी निर्णय पर न जायें.  

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

ग्रह अस्त प्रभाव

       कुण्डली फलीदेश करते समय ग्रहों का अस्त का ध्यान अवश्य रखें

   
       
     
           चन्द्र १२° तक , मंगल १७°, बुध १३° गुरु ११° शुक्र ९° शनि १५° तक  सूर्य के पास हों तो अस्त होते हैं,
 अस्त होते हैं यह नारद पुराण का मत है,
                             नारद पुराण, पूर्वाद्ध श्लोक १६३.
   
                  भृगु संहिता के अनुसार ८°से कम दूरी वाले गृह अस्त ८  से १५° तक आधा अस्त और १५° से ज्यादा दूरी वाले पूर्ण उदय कहलाते हैं,

            अस्त  ग्रह सूर्य मित्र है तो कम हानि  यदि शत्रु हो तो अधिक हानि करेगा।
               अस्त ग्रहों को सुचारू रूप से कार्य करने के लिए अतिरिक्त बल की आवश्यकता होती है तथा कुंडली में किसी अस्त ग्रह का स्वभाव देखने के बाद ही यह निर्णय किया जाता है कि उस अस्त ग्रह को अतिरिक्त बल कैसे प्रदान किया जा सकता है।
            यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह अस्त होने के साथ-साथ प्रकृति से शुभ फलदायी है तो उसे अतिरिक्त बल प्रदान करने का सबसे सरल व प्रभावशाली उपाय है, जातक को उस ग्रह विशेष का रत्‍न धारण करवाना। रत्‍न का वज़न अस्त ग्रह की बलहीनता का सही अनुमान लगाने के बाद ही निर्धारित किया जाता है। रत्‍न धारण से अस्त ग्रह को अतिरिक्त बल मिल जाता है और वह अपना कार्य भलीभांति करता है।
            किन्तु यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह अस्त होने के साथ साथ प्रकृति से अशुभ फलदायी है तो ऐसे ग्रह को रत्‍न द्वारा अतिरिक्त बल प्रदान नहीं कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में रत्‍न का प्रयोग वर्जित है,
                              !!  जय श्री राम !!

मंगलवार, 14 मार्च 2017

क्या मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है, आर्यसमाज/जाकिर नाइक

कुछ मूर्खों ने ( जाकिर नाईक, स्वघोषित आर्य जैसे)
कहा कि मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है ,
(और मूर्ति पूजकों को गाली देते हैं हमें मूर्ख समझते हैं )
     
मूर्खो..!

भगवान् जगन्नाथ की दारुमयी मूर्ति का सुस्पष्ट उल्लेख ऋग्वेद में है-
“अदो यद्दारु प्लवते सिन्धो: पारे अपूरुषम् ।”
-अ.-१०/१५५/३,
“वह दूर समुद्र के किनारे दारुमय जगन्नाथ भगवान् का शरीर जल के ऊपर है ।”
यहां काष्ठमयी प्रतिमा का प्रमाण जाकिर नाइक (जो इसी मंत्र का प्रमाण लेकर वेद द्वारा मूर्ति पूजा खंडन बताकर हिन्दू धर्म का अपमान करता है ) की नाक में नकेल डाल रहा हूँ
“न तस्य प्रतिमाSस्ति” का विवेचन
प्रतिमा का अर्थ उपमा, उपमान और सदृश भी होता है

वेद स्वयं मूर्तिपूजा का प्रतीक दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर प्रदत्त ज्ञान माना जाता है। अनेक वेद-मंत्र इसकी साक्षी देते है। अथर्ववेद 3/10/3 में उल्लेख है-
“संवत्सरस्य प्रतिमा याँ त्वा रात्र्युपास्महे। सा न आयुश्मतीं प्रजाँ रायस्पोशेण सं सृज॥”
अर्थात् “ हे रात्रे ! संवत्सर की प्रतिमा ! हम तुम्हारी उपासना करते हैं। तुम हमारे पुत्र-पौत्रादि को चिर आयुष्य बनाओ और पशुओं से हमको सम्पन्न करो।”
अथर्ववेद 2/13/4 में प्रार्थना है- एह्याश्मा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः ० “हे भगवान! आइये और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइये। आपका यह शरीर पत्थर की बनी मूर्ति हो जाये।”
मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि | [तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ]
हे महावीर तुम इश्वर की प्रतिमा हो |
सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५]
हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ] हैं |
अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत | (अथर्ववेद-20.92.5)
हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन करो,भली भांति पूजन करो |
ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ]
हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य पाषण के लिए नमस्कार है |
गणपति अथर्व शीर्षम् की फलश्रुती है-
"सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमनत्रो भवति ।।"
- सूर्यग्रहणके समय महानदीमें अथवा ***प्रतिमाके*** निकट इस उपनिषद्का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है ।
इसी प्रकार देवी अथर्वशीर्षम् की फलश्रुती है -
निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति । नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं भवति । प्र्ाणप्रतिष्ठा
यां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।।
प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान किया जाता है, प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। सामवेद के 36 वें ब्राह्मण में उल्लेख है-
“देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति। रुदान्त नृत्यान्त स्फुटान्त स्विद्यन्त्युन्मालान्त निमीलन्ति॥
अर्थात्- देवस्थान काँपते हैं, देवमूर्ति हँसती, रोती और नृत्य करती हैं, किसी अंग में स्फुटित हो जाती है, वह पसीजती है, अपनी आँखों को खोलती और बन्द भी करती है।

         
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