बुधवार, 6 दिसंबर 2017
भैरवस्तोत्र,
सं सं सं संहारमूर्ती शुभ मुकुट जटाशेखरम् चन्द्रबिम्बम्।।
दं दं दं दीर्घकायं विकृतनख मुखं चोर्ध्वरेखा करालं।
पं पं पं पापनाशं प्रणपत सततं भैरवं क्षेत्रपालम्।।1।।
रं रं रं रक्तवर्ण कटक कटितनुं तीक्ष्णदंष्ट्राविशालम्।
घं घं घं घोर घोष घ घ घ घ घर्घरा घोर नादम्।
कं कं कं काल रूपं घगघग घगितं ज्वालितं कामदेहं।
दं दं दं दिव्यदेहं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम्।।2।।
लं लं लं लम्बदंतं ल ल ल ल लुलितं दीर्घ जिह्वकरालं।
धूं धूं धूं धूम्र वर्ण स्फुट विकृत मुखं मासुरं भीमरूपम्।।
रूं रूं रूं रुण्डमालं रूधिरमय मुखं ताम्रनेत्रं विशालम्।
नं नं नं नग्नरूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम्।।3।।
वं वं वं वायुवेगम प्रलय परिमितं ब्रह्मरूपं स्वरूपम्।खं खं खं खड्ग हस्तं त्रिभुवननिलयं भास्करम् भीमरूपम्।।
चं चं चं चालयन्तं चलचल चलितं चालितं भूत चक्रम्।
मं मं मं मायाकायं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम्।।4।।
खं खं खं खड्गभेदं विषममृतमयं काल कालांधकारम्।
क्षि क्षि क्षि क्षिप्रवेग दहदह दहन नेत्र संदिप्यमानम्।।
हूं हूं हूं हूंकार शब्दं प्रकटित गहनगर्जित भूमिकम्पं।
बं बं बं बाललील प्रणपत सततं भैरवं क्षेत्रपालम्।।5।।
ॐ तीक्ष्णदंष्ट्र महाकाय कल्पांत दहन प्रभो!
बुधवार, 22 नवंबर 2017
केमुद्रम योग
केमुद्रम योग- ( जिस समय यह योग प्रभावी हो व चन्द्रमा कमजोर पड़े )
नारद पुराण, व अन्य प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख है(अाप बेहिचक मुझसे प्रमाण मांग सकते हैं )
किसी कुण्डली में चन्द्रमा से द्वितीय एंव द्वादश स्थान मे जब कोई ग्रह स्थित न हो तो केमुद्रम नाम का दरिद्रतादायक योग बनता है। जब चन्द्रमा किसी ग्रह से युत व दृष्ट न हो और अगले एंव पिछले केन्द्रों में कोई ग्रह स्थित न हो तो भी केमुद्रम नाम के योग का निर्माण होता है।
कारण-
चन्द्रमा जॅहा पर बैठा होता है, उसे चन्द्र लग्न कहते है। धन प्राप्ति में अन्य लग्नों की भाॅति चन्द्र लग्न का विशेष महत्व है। चन्द्र के विषय में यह सिद्धान्त मौलिक रूप से समझ लेना चाहिए कि यदि चन्द्र किसी भी ग्रह के प्रभाव में न हो तो वह निर्बल समझा जाना चाहिए और निर्बल चन्द्र का अर्थ है लग्न का निर्बल होना अर्थात मनुष्य का धन, स्वास्थ्य, यश, बल आदि से वर्जित होना।
सरावली ग्रन्थ में कहा गया है-
कान्तान्नपानगुहवस्त्रसुह्रद्विहीनो,
दारिद्रयदुः खगददैन्यमलैरूपेतः।
प्रेष्यः खलः सकललोकविरूद्धवृतिः,
केमुद्रमे भवति पार्थिववंशजोपि।।
अर्थात यदि कुण्डली में केमुद्रम योग हो तो स्त्री-पुरूष अन्न, पान, गृह, वस्त्र व बन्धुजनों से विहीन होकर दरिद्रता, दुःख, रोग, परतन्त्रता से युक्त, दूसरों से द्वेष करने वाला, दुष्ट एंव दूसरें लोगों का अनिष्ट करने वाला होता है।
बृहत्पाराशर में है
यह योग नारद पुराण में भी वर्णित है ।
यदि यह योग किसी कुंडली मेॆ मिले तो , अग्निपुराणोक्त महामृत्यंजय, १२५००० , नित्य दशांश हवन , तथा श्री यंत्रार्चन , किशमिस द्वारा खुद करें अथवा किसी श्रीविद्या साधक द्वारा करायें . .. ... . जय महाकाल ..
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नारद पुराण, व अन्य प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख है(अाप बेहिचक मुझसे प्रमाण मांग सकते हैं )
किसी कुण्डली में चन्द्रमा से द्वितीय एंव द्वादश स्थान मे जब कोई ग्रह स्थित न हो तो केमुद्रम नाम का दरिद्रतादायक योग बनता है। जब चन्द्रमा किसी ग्रह से युत व दृष्ट न हो और अगले एंव पिछले केन्द्रों में कोई ग्रह स्थित न हो तो भी केमुद्रम नाम के योग का निर्माण होता है।
कारण-
चन्द्रमा जॅहा पर बैठा होता है, उसे चन्द्र लग्न कहते है। धन प्राप्ति में अन्य लग्नों की भाॅति चन्द्र लग्न का विशेष महत्व है। चन्द्र के विषय में यह सिद्धान्त मौलिक रूप से समझ लेना चाहिए कि यदि चन्द्र किसी भी ग्रह के प्रभाव में न हो तो वह निर्बल समझा जाना चाहिए और निर्बल चन्द्र का अर्थ है लग्न का निर्बल होना अर्थात मनुष्य का धन, स्वास्थ्य, यश, बल आदि से वर्जित होना।
सरावली ग्रन्थ में कहा गया है-
कान्तान्नपानगुहवस्त्रसुह्रद्विहीनो,
दारिद्रयदुः खगददैन्यमलैरूपेतः।
प्रेष्यः खलः सकललोकविरूद्धवृतिः,
केमुद्रमे भवति पार्थिववंशजोपि।।
अर्थात यदि कुण्डली में केमुद्रम योग हो तो स्त्री-पुरूष अन्न, पान, गृह, वस्त्र व बन्धुजनों से विहीन होकर दरिद्रता, दुःख, रोग, परतन्त्रता से युक्त, दूसरों से द्वेष करने वाला, दुष्ट एंव दूसरें लोगों का अनिष्ट करने वाला होता है।
बृहत्पाराशर में है
यह योग नारद पुराण में भी वर्णित है ।
यदि यह योग किसी कुंडली मेॆ मिले तो , अग्निपुराणोक्त महामृत्यंजय, १२५००० , नित्य दशांश हवन , तथा श्री यंत्रार्चन , किशमिस द्वारा खुद करें अथवा किसी श्रीविद्या साधक द्वारा करायें . .. ... . जय महाकाल ..
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रविवार, 29 अक्टूबर 2017
महाभैरवाष्टकम्
भैरवाष्टकम् ॥
ॐ
यं यं यं यक्षरूपं दशदिशिविदितं भूमिकम्पायमानं
सं सं संहारमूर्तिं शिरमुकुटजटा शेखरंचन्द्रबिम्बम् ।
दं दं दं दीर्घकायं विक्रितनख मुखं चोर्ध्वरोमं करालं
पं पं पं पापनाशं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ १॥
रं रं रं रक्तवर्णं, कटिकटिततनुं तीक्ष्णदंष्ट्राकरालं
घं घं घं घोष घोषं घ घ घ घ घटितं घर्झरं घोरनादम् ।
कं कं कं कालपाशं द्रुक् द्रुक् दृढितं ज्वालितं कामदाहं
तं तं तं दिव्यदेहं, प्रणामत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ २॥
लं लं लं लं वदन्तं ल ल ल ल ललितं दीर्घ जिह्वा करालं
धूं धूं धूं धूम्रवर्णं स्फुट विकटमुखं भास्करं भीमरूपम् ।
रुं रुं रुं रूण्डमालं, रवितमनियतं ताम्रनेत्रं करालम्
नं नं नं नग्नभूषं , प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ३॥
वं वं वायुवेगं नतजनसदयं ब्रह्मसारं परन्तं
खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवनविलयं भास्करं भीमरूपम् ।
चं चं चलित्वाऽचल चल चलिता चालितं भूमिचक्रं
मं मं मायि रूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ४॥
शं शं शं शङ्खहस्तं, शशिकरधवलं, मोक्ष सम्पूर्ण तेजं
मं मं मं मं महान्तं, कुलमकुलकुलं मन्त्रगुप्तं सुनित्यम् ।
यं यं यं भूतनाथं, किलिकिलिकिलितं बालकेलिप्रदहानं
आं आं आं आन्तरिक्षं , प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ५॥
खं खं खं खड्गभेदं, विषममृतमयं कालकालं करालं
क्षं क्षं क्षं क्षिप्रवेगं, दहदहदहनं, तप्तसन्दीप्यमानम् ।
हौं हौं हौंकारनादं, प्रकटितगहनं गर्जितैर्भूमिकम्पं
बं बं बं बाललीलं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ६॥
var वं वं वं वाललीलं
सं सं सं सिद्धियोगं, सकलगुणमखं, देवदेवं प्रसन्नं
पं पं पं पद्मनाभं, हरिहरमयनं चन्द्रसूर्याग्नि नेत्रम् ।
ऐं ऐं ऐं ऐश्वर्यनाथं, सततभयहरं, पूर्वदेवस्वरूपं
रौं रौं रौं रौद्ररूपं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ७॥
हं हं हं हंसयानं, हसितकलहकं, मुक्तयोगाट्टहासं, ?
धं धं धं नेत्ररूपं, शिरमुकुटजटाबन्ध बन्धाग्रहस्तम् ।
तं तं तंकानादं, त्रिदशलटलटं, कामगर्वापहारं, ??
भ्रुं भ्रुं भ्रुं भूतनाथं, प्रणमत सततं, भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ८॥
इति महाकालभैरवाष्टकं सम्पूर्णम् ।
नमो भूतनाथं नमो प्रेतनाथं
नमः कालकालं नमः रुद्रमालम् ।
नमः कालिकाप्रेमलोलं करालं
नमो भैरवं काशिकाक्षेत्रपालम् ॥ <iframe style="width:120px;height:240px;" marginwidth="0" marginheight="0" scrolling="no" frameborder="0" src="//ws-in.amazon-adsystem.com/widgets/q?ServiceVersion=20070822&OneJS=1&Operation=GetAdHtml&MarketPlace=IN&source=ac&ref=qf_sp_asin_til&ad_type=product_link&tracking_id=madhavji-21&marketplace=amazon®ion=IN&placement=B06XZVQXGN&asins=B06XZVQXGN&linkId=029d2ea80edd01971d9af37ee1a248fd&show_border=false&link_opens_in_new_window=false&price_color=333333&title_color=0066C0&bg_color=FFFFFF"> </iframe>
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गुरुवार, 7 सितंबर 2017
मंगलदोष परिहार
मंगलिक दोष का परिहार ---
लग्ने व्यये च पाताले यामित्रे चाष्टमे कुजे . कन्या भर्तु विनाशाय भर्तु कन्या विनाशकृत ॥(मंगल दोष)
अंजे लग्ने व्यये चापे पाताले वृश्चिके कुजे। वृषे जाए घटे रन्ध्रे भौमदोषो न विद्यते॥
मेष का मंगल लग्न मे, धनु का द्वादश भाव मे वृश्चिक का चौथे भाव मे,वृष का सप्तम मे कुम्भ का आठवे भाव मे हो तो भौम दोष नही रहता ॥
अर्केन्दु क्षेत्रजातां कुज दोषो न विद्यते ।
स्वोच्चमित्रभ जातानां तद् दोषो न विद्यते ॥
स्वोच्चमित्रभ जातानां तद् दोषो न विद्यते ॥
सिंह लग्न और कर्क लग्न मे भी लग्नस्थ मंगल का दोष नही होता है\
नीचस्थो रिपुराशिस्थः खेटो भाव विनाशकः ।
मूलस्वतुंगा मित्रस्था भावबृद्धि करोत्यलमः ॥
मूलस्वतुंगा मित्रस्था भावबृद्धि करोत्यलमः ॥
कुंडली मे मंगल यदि सिंह,धनु,मीन मे हो तो भौम दोष नही रहता है शनि भौमोथवा कश्चित्पापो वा तादृशो भवेत् ।
तेष्वेव भवनेष्वेव भौम दोष विनाशकृत ॥
तेष्वेव भवनेष्वेव भौम दोष विनाशकृत ॥
शनि मंगल या कोई भी पाप ग्रह जैसे राहु,सूर्य,केतु अगर मंगलिक भावो(1,4,7,8,12)मे कन्या कि कुंडली हो और उन्ही भावो मे वर के भी हो तो भौम दोषनष्ट होता है ।यानि यदि एक कुंडली मे मांगलिक स्थान मे मंगल हो तथा दूसरे की मे इन्ही स्थानो मे शनि,सूर्य,मंगल,राहु,केतु मे से कोई एक ग्रह हो तो उअस दोष को काटता है।
केन्द्रे कोणे शुभाढ्याश्चते् च त्रिषडा़येप्य सद्ग्रहाः । तदा भौमस्य दोषो न मदने मदपस्तथा ॥
यानी 3,6,11वे भावो मे अशुभ ग्रह हो और केन्द्र (1,4,7,10)व त्रिकोण (5,9) मे शुभ ग्रह हो,सप्तमेष सातवे भाव मे हो तो मंगल दोष नही रहता है ।
वाचस्पतौ नवपंच केन्द्र संस्थे जातांगना भवति पूर्णविभूतियुक्ता ।
साध्वी सुपुत्रजननी सुखिनीगुढ्यां सप्ताष्टके यदि भवेदशुभ ग्रहोपि ॥
साध्वी सुपुत्रजननी सुखिनीगुढ्यां सप्ताष्टके यदि भवेदशुभ ग्रहोपि ॥
कन्या की कुंडली मे गुरू यदि केन्द्र या त्रिकोण मे हो तो मांगलिक दोष नही लगता अपितु उसके सुख-सौभाग्य को बढाने वाला होता है । त्रिषट् एकादशे राहु त्रिषड़कादशे शनिः। त्रिषड़कादशे भौमः सर्वदोष विनाशकृतः॥
यदि एक कुंडली मे मांगलिक योग हो और दूसरे कि कुंडली के (3,6,11)वे भाव मे से किसी भाव मे राहु ,मंगल या शनि मे से कोई ग्रह हो तो मांगलिक दोष नष्ट हो जाता है ।
द्वितीय भौमदोषस्तु कन्यामिथुन योर्विना, चतुर्थ कुजदोषःस्याद् तुलाबृषभयोर्विना। अष्टमो भौमदोषस्तु धनु मीनद्व योर्विना, व्यये तु कुजदोषःस्याद् कन्यामिथुन योर्विना॥
द्वितीय भाव मे यदि बुध राशि (मिथुन,कन्या) का मंगल हो तो मांगलिक दोष नही लगेगा ऐसा बृष व सिंह लग्न की कुंडली मे ही होगा ।चतुर्थ भाव मे शुक्र राशि (बृष,तुला) का मंगल दोषकृत नही है, ऐसा कर्क व कुम्भ लग्न मे होगा।अष्टम भाव मे गुरू राशि (धनु,मीन) का मंगल दोष पैदा नही करेगा ।ऐस बृष और सिंह लग्न मे ही सम्भव है और बारहवे भाव मे मंगल का दोष बुध कि राशि (मिथुन,कन्या) मे नही होगा ।ऐसा कर्क और तुला लग्नो मे ही होगा तथा 1,4,7,8,12 वे भाव मे मंगल यदि चर राशि मेष कर्क ,तुला और मकर मे हो तो भी मांगलिक दोष नही लगता है ॥
भौमेन सदृषो भौमः पापोवा तादृशो भवेत। विवाह शुभदः प्रोक्ततिश्चरायुः पुत्र पौत्रदः ॥
मंगल के समान ही कोई पापग्रह (सूर्य,शनि,राहु,केतु) दूसरे कि कुंडली के मांगलिक स्थान मे हो तो दोनो का विवाह करना चाहिए ,ऐसे दाम्पत्ति आयु,पुत्र,पौत्रादि से सम्पन्न होकर सुखी जीवन व्यतीत करेगे ।
यामित्रे च यदा सौरि लग्ने वा हिबूकेथवा । अष्टमे द्वादशे चैव- भौम दोषो न विद्यते ॥
जिस वर –कन्या के (1,4,7,8,12) इन स्थनो मे शनि हो तो मंगली दोष मिट जाता है|
गुरु भौम समायुक्तश्च भौमश्च निशाकरः केन्द्रे वा वर्तते चन्द्र एतद्योग न मंगली । गुरु लग्ने त्रिकोणेवा लाभ स्थाने यदा शनिः, दशमे च यदा राहु मंगली दोष नाश कृत॥
गुरु भौम के साथ पडने से अथवा चन्द्रमा भौम एक साथ और केन्द्र मे (1,4,7,10) इन स्थानो मे चन्द्रमा होवे तो भी मंगली दोष मिट जाता है , जिसके लग्न मे गुरु बैठा हो अथवा त्रिकोण स्थान (5,9) मे गुरु बैठा और 11 भाव शनि हो 10 वे स्थान राहु बैठा हो तो भी मंगली दोष मिट जाता है ॥
=========================================================
बुधवार, 16 अगस्त 2017
गुरुत्वाकर्षण की खोज न्यूटन ने नहीं, बल्कि इसका वर्णन संस्कृत ग्रन्थों में पहले से है.
हमें पढ़ाया जाता है कि गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त न्यूटन (1642 -1726) ने दिया. यदि विद्यार्थी संस्कृत पढेंगे तो जान जाएंगे कि यह झूठ है.
--- तुलसी दास जी ने कवितावली में लिखा, हनुमान जी के द्वारा अमर राक्षसों को, पृथ्वी से वहाँ फेंका गया जहाँ से न उपर जा सकते हैं न नीचे.
प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ भास्कराचार्य (1114 –
1185) के द्वारा रचित एक मुख्य ग्रन्थ *सिद्धान्त शिरोमणि* है हैं।
भास्कराचार्य ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि में यह कहा है-
*आकृष्टिशक्तिश्चमहि तया यत् खस्थं गुरूं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या ।*
*आकृष्यते तत् पततीव भाति समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।।*
– सिद्धान्त० भुवन० १६
अर्थात – पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है जिसके कारण वह ऊपर
की भारी वस्तु को अपनी ओर
खींच लेती है । वह वस्तु पृथ्वी पर
गिरती हुई सी लगती है । पृथ्वी
स्वयं सूर्य आदि के आकर्षण से रुकी हुई है,अतः वह निराधार
आकाश में स्थित है तथा अपने स्थान से हटती नहीं
है और न गिरती है । वह अपनी कील पर
घूमती है।
-------------------
वराहमिहिर ( 57 BC ) ने अपने ग्रन्थ *पञ्चसिद्धान्तिका*में कहा है-
*पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः।*
*खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।।*
– पञ्चसिद्धान्तिका पृ०३१
अर्थात- तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथ्वी
इसी प्रकार रुकी हुई है जैसे दो बड़े चुम्बकों के
बीच में लोहा ।
--------------------
अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशेखर में आचार्य श्रीपति ने कहा है –
*उष्णत्वमर्कशिखिनोः शिशिरत्वमिन्दौ,.. निर्हतुरेवमवनेःस्थितिरन्तरिक्षे ।।*
– सिद्धान्तशेखर १५/२१ )
नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये स्थितो लोहगुणो यथास्ते ।
आधारशून्यो पि तथैव सर्वधारो धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः ।।
–सिद्धान्तशेखर १५/२२
अर्थात -पृथ्वी की अन्तरिक्ष में स्थिति उसी
प्रकार स्वाभाविक है, जैसे सूर्य्य में गर्मी, चन्द्र में
शीतलता और वायु में गतिशीलता । दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहे का गोला स्थिर रहता है, उसी प्रकार पृथ्वी भी अपनी धुरी पर
रुकी हुई है ।
ऐसे अनेकों प्रामाणिक उदाहरण हैं परन्तु भारतीयों के तन्द्रावस्था में लीन होने के कारण प्राचीन भारतीय विज्ञान के स्रोत विलुप्त प्रायः हैं ।
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बुधवार, 26 जुलाई 2017
रविवार, 16 जुलाई 2017
श्री हनुमत कवच
श्री हनुमत कवच
श्री राम उवाच
हनुमान् पूर्वतः पातु दक्षिणे पवनात्मजः ।
प्रतीच्यां पातु रक्षोध्न उत्तरास्यांब्धि पारगः ।।१।।
उध् मूध्वर्गः पातु केसरीप्रियनंदनः ।
अधस्च विष्णु भक्तस्तु पातु मध्ये च पावनिः ।।२।।
अवान्तर दिशः पातु सीताशोकविनाशनः ।
लंकाविदाहकः पातु सर्वापदभ्यो निरंतरं ।।३।।
सुग्रीवसचिवः पातु मस्तकं वायुनंदनः ।
भालं पातु महावीरो भ्रुवोमध्ये निरंतरं ।।४।।
नेत्रे छायापहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः ।
कपोलौ कर्णमूले तु पातु श्रीरामकिंकरः ।।5।।
नासाग्रम्-अंजनीसूनुर्वक्त्रं पातु हरीश्वरः ।
वाचं रूद्रप्रियः पातु जिह्वां पिंगललोचनः ।।६।।
पातु दंतांफाल्गुनेष्टश्चिबुकं दैत्यप्राणह्रृत् ।
पातु कण्ठण्च दैत्यारीः स्कंधौ पातु सुरार्चितः ।।७।।
भुजौ पातु महातेजाः करौतू चरणायुधः ।
नखांनखायुध पातु कुक्षिं पातु कपीश्वरः ।।८।।
वक्षोमुद्रापहारी-च पातु पार्श्र्वे भुजायुधः ।
लंकाविभंजनः पातु पृष्ठदेशे निरंतरं ।।९।।
नाभिंच रामदूतोस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः ।
गुह्मं पातु महाप्रज्ञः सक्थिनी-च शिवप्रियः ।।१०।।
उरू-च जानुनी पातु लंकाप्रासादभंजनः ।
जंधे पातु महाबाहुर्गुल्फौ पातु महाबलः ।।११।।
अचलोध्दारकः पातु पादौ भास्करसन्निभः ।
पादांते सर्वसत्वाढ्यः पातु पादांगुलीस्तथा ।।१२।।
सर्वांगानि महावीरः पातु रोमाणि चात्मवान् ।
हनुमत्कवचं यस्तु पठेद्विद्वान् विलक्षणः ।।१३।।
स-एव पुरूषः श्रेष्ठो भक्तिं मुक्तिं-च विंदति ।
त्रिकालमेककालं-वा पठेन्मात्रयं सदा ।।१४।।
सर्वान-रिपून्क्षणे जित्वा स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
मध्यरात्रे जले स्थित्वा सप्तवारं पठेद्धादि ।।१५।।
क्षयाऽपस्मार-कुष्ठादिता-पत्रय-निवारणं ।
आर्किवारेऽश्र्वत्थमूले स्थित्वा पठतिः यः पुमान् ।।१६।।
अचलां श्रियमाप्नोति संग्रामे विजयीभवेत् ।।१७।।
यः करे धारयेन्-नित्यं-स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
विवाहे दिव्यकाले च द्धूते राजकुले रणे ।।१८।।
भूतप्रेतमहादुर्गे रणे सागरसंप्लवे ।
दशवारं पठेद्रात्रौ मिताहारी जितेंद्रियः ।।१९।।
विजयं लभते लोके मानवेषु नराधिपः ।
सिंहव्याघ्रभये चोग्रेशर शस्त्रास्त्र यातने ।।२०।।
श्रृंखलाबंधने चैव काराग्रहकारणे ।
कायस्तंभ वहिन्नदाहे च गात्ररोगे च दारूणे ।।२१।।
शोके महारणे चैव ब्रह्मग्रहविनाशने ।
सर्वदा तु पठेन्नित्यं जयमाप्नोत्य संशयं ।।२२।।
भूर्जेवा वसने रक्ते क्षौमेवा तालपत्रके ।
त्रिगंधेन् अथवा मस्या लिखित्वा धारयेन्नरः ।।२३।।
पंचसप्तत्रिलौहैर्वा गोपितं कवचं शुभं ।
गलेकट्याम् बाहुमूले वा कण्ठे शिरसि धारितं ।।२४।।
सर्वान्कामानवाप्नोति सत्यं श्रीरामभाषितं ।।२५।।
उल्लंघ्य सिंधोः सलिलं-सलिलं यः शोकवन्हि जनकात्मजायाः ।
आदाय तेनैव ददाह लंकां नमामितं प्राण्जलिराण्जनेयम् ।।२६।।
ॐ हनुमान् अंजनी सूनुर्वायुर्पुत्रो महाबलः ।
श्रीरामेष्टः फाल्गुनसंखः पिंगाक्षोऽमित विक्रमः ।।२७।।
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः ।
लक्ष्मणप्राणदाताच दशग्रीवस्य दर्पहा ।।२८।।
द्वादशै तानि नामानि, कपींद्रस्य महात्मनः ।
स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत् ।।२९।।
तस्य सर्वभयं नास्ति, रणे च विजयी भवेत् ।
धन-धान्यं भवेत् तस्य दुःखं नैव कदाचन ।।३०।।
!! जय श्री राम!!
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श्री राम उवाच
हनुमान् पूर्वतः पातु दक्षिणे पवनात्मजः ।
प्रतीच्यां पातु रक्षोध्न उत्तरास्यांब्धि पारगः ।।१।।
उध् मूध्वर्गः पातु केसरीप्रियनंदनः ।
अधस्च विष्णु भक्तस्तु पातु मध्ये च पावनिः ।।२।।
अवान्तर दिशः पातु सीताशोकविनाशनः ।
लंकाविदाहकः पातु सर्वापदभ्यो निरंतरं ।।३।।
सुग्रीवसचिवः पातु मस्तकं वायुनंदनः ।
भालं पातु महावीरो भ्रुवोमध्ये निरंतरं ।।४।।
नेत्रे छायापहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः ।
कपोलौ कर्णमूले तु पातु श्रीरामकिंकरः ।।5।।
नासाग्रम्-अंजनीसूनुर्वक्त्रं पातु हरीश्वरः ।
वाचं रूद्रप्रियः पातु जिह्वां पिंगललोचनः ।।६।।
पातु दंतांफाल्गुनेष्टश्चिबुकं दैत्यप्राणह्रृत् ।
पातु कण्ठण्च दैत्यारीः स्कंधौ पातु सुरार्चितः ।।७।।
भुजौ पातु महातेजाः करौतू चरणायुधः ।
नखांनखायुध पातु कुक्षिं पातु कपीश्वरः ।।८।।
वक्षोमुद्रापहारी-च पातु पार्श्र्वे भुजायुधः ।
लंकाविभंजनः पातु पृष्ठदेशे निरंतरं ।।९।।
नाभिंच रामदूतोस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः ।
गुह्मं पातु महाप्रज्ञः सक्थिनी-च शिवप्रियः ।।१०।।
उरू-च जानुनी पातु लंकाप्रासादभंजनः ।
जंधे पातु महाबाहुर्गुल्फौ पातु महाबलः ।।११।।
अचलोध्दारकः पातु पादौ भास्करसन्निभः ।
पादांते सर्वसत्वाढ्यः पातु पादांगुलीस्तथा ।।१२।।
सर्वांगानि महावीरः पातु रोमाणि चात्मवान् ।
हनुमत्कवचं यस्तु पठेद्विद्वान् विलक्षणः ।।१३।।
स-एव पुरूषः श्रेष्ठो भक्तिं मुक्तिं-च विंदति ।
त्रिकालमेककालं-वा पठेन्मात्रयं सदा ।।१४।।
सर्वान-रिपून्क्षणे जित्वा स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
मध्यरात्रे जले स्थित्वा सप्तवारं पठेद्धादि ।।१५।।
क्षयाऽपस्मार-कुष्ठादिता-पत्रय-निवारणं ।
आर्किवारेऽश्र्वत्थमूले स्थित्वा पठतिः यः पुमान् ।।१६।।
अचलां श्रियमाप्नोति संग्रामे विजयीभवेत् ।।१७।।
यः करे धारयेन्-नित्यं-स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
विवाहे दिव्यकाले च द्धूते राजकुले रणे ।।१८।।
भूतप्रेतमहादुर्गे रणे सागरसंप्लवे ।
दशवारं पठेद्रात्रौ मिताहारी जितेंद्रियः ।।१९।।
विजयं लभते लोके मानवेषु नराधिपः ।
सिंहव्याघ्रभये चोग्रेशर शस्त्रास्त्र यातने ।।२०।।
श्रृंखलाबंधने चैव काराग्रहकारणे ।
कायस्तंभ वहिन्नदाहे च गात्ररोगे च दारूणे ।।२१।।
शोके महारणे चैव ब्रह्मग्रहविनाशने ।
सर्वदा तु पठेन्नित्यं जयमाप्नोत्य संशयं ।।२२।।
भूर्जेवा वसने रक्ते क्षौमेवा तालपत्रके ।
त्रिगंधेन् अथवा मस्या लिखित्वा धारयेन्नरः ।।२३।।
पंचसप्तत्रिलौहैर्वा गोपितं कवचं शुभं ।
गलेकट्याम् बाहुमूले वा कण्ठे शिरसि धारितं ।।२४।।
सर्वान्कामानवाप्नोति सत्यं श्रीरामभाषितं ।।२५।।
उल्लंघ्य सिंधोः सलिलं-सलिलं यः शोकवन्हि जनकात्मजायाः ।
आदाय तेनैव ददाह लंकां नमामितं प्राण्जलिराण्जनेयम् ।।२६।।
ॐ हनुमान् अंजनी सूनुर्वायुर्पुत्रो महाबलः ।
श्रीरामेष्टः फाल्गुनसंखः पिंगाक्षोऽमित विक्रमः ।।२७।।
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः ।
लक्ष्मणप्राणदाताच दशग्रीवस्य दर्पहा ।।२८।।
द्वादशै तानि नामानि, कपींद्रस्य महात्मनः ।
स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत् ।।२९।।
तस्य सर्वभयं नास्ति, रणे च विजयी भवेत् ।
धन-धान्यं भवेत् तस्य दुःखं नैव कदाचन ।।३०।।
!! जय श्री राम!!
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रविवार, 9 जुलाई 2017
श्री कालभैरव स्तोत्र
श्री कालभैरव स्तोत्र
नमो भैरवदेवाय नित्यायानंद मूर्तये ।
विधिशास्त्रांत मार्गाय वेदशास्त्रार्थ दर्शिने ॥ १ ॥
दिगंबराय कालाय नम: खट्वांग धारिणे ॥
विभूतिविल सद्भाल नेत्रायार्धेंदुमोलिने ॥ २ ॥
कुमारप्रभवे तुभ्यं बटुकाय महात्मने ।
नमोsचिंत्य प्रभावाय त्रिशूलायुधधारिणे ॥ ३ ॥
नमः खड्गमहाधार ह्रतत्रैलोक्य भितये ।
पुरितविश्र्व विश्र्वाय विश्र्वपालायते नमः ॥ ४ ॥
भुतावासाय भूताय भूतानां पतये नमः ।
अष्टमूर्ते नमस्तुभ्यं कालकालायते नमः ॥ ५ ॥
कंकाला याति घोराय क्षेत्रपालाय कामिने ।
कलाकाष्ठादिरुपाय कालाय क्षेत्र वासीने ॥ ६ ॥
नमः क्षत्रजित तुभ्यं विराजे ज्ञानशालिने ।
विधानां गुरवे तुभ्यं निधीनांपतये नमः ॥ ७ ॥
नमः प्रपंच दोर्दंड दैत्यदर्प विनाशिने ।
निज भक्तजनोद्दाम हर्ष प्रवर दायिने ॥ ८ ॥
नमो दंभारिमुख्याय नामैश्र्वर्याष्ट दायिने ।
अनंत दुःख संसार पारावारांत दर्शने ॥ ९ ॥
नमो दंभाय मोहाय द्वेषायोच्चोटकारिणे ।
वशंकराय राजन्य मौलिन्यस्य निजांघ्रये ॥ १० ॥
नमो भक्तापदा हंत्रे स्मृतिमात्रार्थ दर्शिने ।
आनंदमूर्तये तुभ्यं स्मशान निलयायते ॥ ११ ॥
वेताळभूत कुश्मांड ग्रहसेवा विलासिने ।
दिगंबराय महते पिशाचाकृति शालिने ॥ १२ ॥
नमो ब्रह्मादिभिर्वंद्द पदरेणु वरायुषे ।
ब्रह्मादि ग्रास दक्षाय निःफलाय नमो नमः ॥ १३ ॥
नमः काशीनिवासाय नमो दंडकवासिने ।
नमोsनंत प्रबोधाय भैरवाय नमो नमः ॥ १४ ॥
श्री कालभैरव स्तोत्र संपूर्णम् ॥ श्री कालभैरवार्पणंsस्तु ॥
शुभं भवतु ॥
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बुधवार, 28 जून 2017
शनिवार, 24 जून 2017
गुप्त नवरात्रि प्ररंभ , २४/०६/२१७ मुहूर्त व साधनाएँ
*माघ गुप्त नवरात्रि प्रारंभ 24/06/ 2017*
घट स्थापन प्रयोग:-आज रात 9 बजे , शनिवार
*प्रत्येक वर्ष आने वाले दो नवरात्रों से तो आप सभी लोग परिचित हैं लेकिन इनके अलावा प्रत्येक वर्ष दो और नवरात्री होती हैं जिन्हें गुप्त नवरात्री कहा जाता है। पूर्व काल में इनका ज्ञान केवल उच्च कोटि के साधकों को होता था जो इस समय का उपयोग विशिष्ट साधनाओं को सम्पन्न करने में किया करते थे।*
*गुप्त नवरात्र में पूजा, उपासना सामान्य नवरात्रों के समान ही होती हैा तान्त्रिक समाज में इन नवरात्रों का बहुत ही महत्व है, जो इस समय की लगातार प्रतिक्षा करता है*
*28 जनवरी 2017 ( शनिवार ) घट स्थापना, शैलपुत्री पूजा* आह्मान
*29 जनवरी 2017 ( रविवार ) द्वितीया ब्रह्मचारिणी पूजा*
*30 जनवरी 2017 ( सोमवार ) तृतीया चंद्रघंटा पूजा*
*31 जनवरी 2017 ( मंगलवार) चतुर्थी कुष्मांडा पूजा*
*01 फरवरी 2017 ( बुधवार ) पंचमी स्कंदमाता पूजा*
वसंतपंचमी सरस्वती बिज स्थापन प्रयोग :-
12 बजे से 3 बजे तक दोपहर ।
सरस्वती सर्वकार्य सिद्धि हवन रात :- 8 बजे।
*02 फरवरी 2017 ( गुरुवार) षष्ठी कात्यायनी पूजा*
*03 फरवरी 2017 ( शुक्रवार) सप्तमी कालरात्रि पूजा*
*04 फरवरी 2017 ( शनिवार ) अष्टमी महागौरी पूजा, दुर्गा महा अष्टमी पूजा,*
अष्टमी बगलामुखी प्रत्यंगिरा हवन रात 8 बजे!
*05 फरवरी 2017 ( रविवार ) नवमी सिद्धिदात्री पूजा*
*06 फरवरी 2017 ( सोमवार ) दशमी नवरात्री प्रयाण*
आप श्री यंत्र साधना, या श्री विद्या साधना करना चाहते हैं तो यह आपके लिए स्वर्णिम समय है,
माँ भगवती आपका कल्याण करें ....
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घट स्थापन प्रयोग:-आज रात 9 बजे , शनिवार
*प्रत्येक वर्ष आने वाले दो नवरात्रों से तो आप सभी लोग परिचित हैं लेकिन इनके अलावा प्रत्येक वर्ष दो और नवरात्री होती हैं जिन्हें गुप्त नवरात्री कहा जाता है। पूर्व काल में इनका ज्ञान केवल उच्च कोटि के साधकों को होता था जो इस समय का उपयोग विशिष्ट साधनाओं को सम्पन्न करने में किया करते थे।*
*गुप्त नवरात्र में पूजा, उपासना सामान्य नवरात्रों के समान ही होती हैा तान्त्रिक समाज में इन नवरात्रों का बहुत ही महत्व है, जो इस समय की लगातार प्रतिक्षा करता है*
*28 जनवरी 2017 ( शनिवार ) घट स्थापना, शैलपुत्री पूजा* आह्मान
*29 जनवरी 2017 ( रविवार ) द्वितीया ब्रह्मचारिणी पूजा*
*30 जनवरी 2017 ( सोमवार ) तृतीया चंद्रघंटा पूजा*
*31 जनवरी 2017 ( मंगलवार) चतुर्थी कुष्मांडा पूजा*
*01 फरवरी 2017 ( बुधवार ) पंचमी स्कंदमाता पूजा*
वसंतपंचमी सरस्वती बिज स्थापन प्रयोग :-
12 बजे से 3 बजे तक दोपहर ।
सरस्वती सर्वकार्य सिद्धि हवन रात :- 8 बजे।
*02 फरवरी 2017 ( गुरुवार) षष्ठी कात्यायनी पूजा*
*03 फरवरी 2017 ( शुक्रवार) सप्तमी कालरात्रि पूजा*
*04 फरवरी 2017 ( शनिवार ) अष्टमी महागौरी पूजा, दुर्गा महा अष्टमी पूजा,*
अष्टमी बगलामुखी प्रत्यंगिरा हवन रात 8 बजे!
*05 फरवरी 2017 ( रविवार ) नवमी सिद्धिदात्री पूजा*
*06 फरवरी 2017 ( सोमवार ) दशमी नवरात्री प्रयाण*
आप श्री यंत्र साधना, या श्री विद्या साधना करना चाहते हैं तो यह आपके लिए स्वर्णिम समय है,
माँ भगवती आपका कल्याण करें ....
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शुक्रवार, 16 जून 2017
श्री कृष्ण द्वारा वर्णित, महादेव कृत "देवी" स्तोत्र, शत्रु विजय , पुत्र प्राप्ति व सभी कष्टों का हरण करता है , (ब्रह्मवैवर्त पुराण )
भगवान शंकर जब त्रिपुर से युद्ध कर रहे थे,
और उसको मारना बहुत मुश्किल हो रहा था तब महादेव ने , भगवान विष्णु द्वारा बतलाये हुए ,
"माँ भगवती"
के स्तोत्र का पाठ किया, व माँ की कृपा से त्रिपुरासुर का वध किया.
यह स्तोत्र स्त्री, पुत्र, भूमि सर्व सम्पत्ति दाता शत्रु पर विजय, व महावन्ध्या को भी पुत्रवती, व किसी भी रोग से मुक्ति दिलाता है....
पुराण में श्री कृष्ण द्वारा नंदबाबा को इसका उपदेश दिया गया, इसी उपाख्यान में
श्री महादेव कृत भगवती स्तोत्र , (ब्रह्मवैवर्त ८८/१५-३८)
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और उसको मारना बहुत मुश्किल हो रहा था तब महादेव ने , भगवान विष्णु द्वारा बतलाये हुए ,
"माँ भगवती"
के स्तोत्र का पाठ किया, व माँ की कृपा से त्रिपुरासुर का वध किया.
यह स्तोत्र स्त्री, पुत्र, भूमि सर्व सम्पत्ति दाता शत्रु पर विजय, व महावन्ध्या को भी पुत्रवती, व किसी भी रोग से मुक्ति दिलाता है....
पुराण में श्री कृष्ण द्वारा नंदबाबा को इसका उपदेश दिया गया, इसी उपाख्यान में
श्री महादेव कृत भगवती स्तोत्र , (ब्रह्मवैवर्त ८८/१५-३८)
समस्त कष्टों के निवारण इस दिव्य स्तोत्र से हो जाते हैं,
यह स्वयं श्री कृष्ण के वचन हैं.....
गुरुवार, 11 मई 2017
हनुमान से क्यों डरते है शनि और शनिदेव पर तेल क्यों चढाया जाता है !
हनुमान जी एक बार संध्या समय अपने आराध्य श्री राम का स्मरण करने लगा तो उसी समय ग्रहों में पाप ग्रह, मंद गति सूर्य पुत्र शनि देव पधारे। वह अत्यंत कृष्ण वर्ण के भीषणाकार थे। वह अपना सिर प्रायः झुकाये रखते हैं। जिस पर अपनी दृष्टि डालते हैं वह अवश्य नष्ट हो जाता है। शनिदेव हनुमान के बाहुबल और पराक्रम को नहीं जानते थे। हनुमान ने उन्हें लंका में दशग्रीव के बंधन से मुक्त किया था। वह हनुमान जी से विनयपूर्वक किंतु कर्कश स्वर में बोले हनुमान जी ! मैं आपको सावधान करने आया हूं। त्रेता की बात दूसरी थी, अब कलियुग प्रारंभ हो गया है। मैं सृष्टिकर्ता के विधान से विवश हूं। आप पृथ्वी पर रहते हैं। अतः आप मेरे प्रभुत्व क्षेत्र से बाहर नहीं हैं। पूरे साढे बाईस वर्ष व्यतीत होने पर साढ़े सात वर्ष के अंतर से ढाई वर्ष के लिए मेरा प्रभाव प्राणी पर पड़ता है। किंतु यह गौण प्रभाव है। आप पर मेरी साढ़े साती आज इसी समय से प्रभावी हो रही हो। मैं आपके शरीर पर आ रहा हूं। इसे आप टाल नहीं सकते।फिर हनुमान जी कहते हैं, जब आपको आना ही है तो आइए, अच्छा होता कि आप मुझ वृद्ध को छोड़ ही देते'! फिर शनिदेव कहते हैं, कलियुग में पृथ्वी पर देवता या उपदेवता किसी को नहीं रहना चाहिए। सबको अपना आवास सूक्ष्म लोकों में रखना चाहिए जो पृथ्वी पर रहेगा। वह कलियुग के प्रभाव में रहेगा और उसे मेरी पीड़ा भोगनी पड़ेगी और ग्रहों में मुझे अपने अग्रज यम का कार्य मिला है। मैं मुख्य मारक ग्रह हूं। और मृत्यु के सबसे निकट वृद्ध होते हैं। अतः मैं वृद्धों को कैसे छोड़ सकता हूं।'
हनुमान जी पूछते हैं, आप मेरे शरीर पर कहां बैठने आ रहे हैं। शनिदेव गर्व से कहते हैं प्राणी के सिर पर। मैं ढाई वर्ष प्राणी के सिर पर रहकर उसकी बुद्धि विचलित बनाए रखता हूं। मध्य के ढाई वर्ष उसके उदर में स्थित रहकर उसके शरीर को अस्वस्थ बनाता हूं व अंतिम ढाई वर्ष पैरों में रहकर उसे भटकाता हूं।' फिर शनिदेव हनुमान जी के मस्तक पर आ बैठे तो हनुमान जी के सिर पर खाज हुई। इसे मिटाने के लिए हनुमान जी ने बड़ा पर्वत उठाकर सिर पर रख लिया।शनिदेव चिल्लाते हैं, यह क्या कर रहे हैं आप।' फिर हनुमान जी कहते हैं, जैसे आप सृष्टिकर्ता के विधान से विवश हैं वैसे मैं भी अपने स्वभाव से विवश हूं। मेरे मस्तक पर खाज मिटाने की यही उपचार पद्धति है। और आप अपना कार्य करें और मैं अपना कार्य।'ऐसा कहते ही हुनमान जी ने दूसरा पर्वत उठाकर सिर पर रख लिया। इस पर शनिदेव कहते हैं, आप इन्हें उतारिए, मैं संधि करने को तैयार हूं।' उनके इतना कहते ही हनुमान जी ने तीसरा पर्वत उठाकर सिर पर रख लिया तो शनि देव चिल्ला कर कहते हैं, मैं अब आपके समीप नहीं आऊंगा। फिर भी हनुमान जी नहीं माने और चौथा पर्वत उठाकर सिर पर रख लिया। शनिदेव फिर चिल्लाते हैं, पवनकुमार ! त्राहि माम ताहि माम ! रामदूत ! आंजनेयाय नमः ! मैं उसको भी पीड़ित नहीं करूंगा जो आपका स्मरण करेगा। मुझे उतर जाने का अवसर दें। हनुमान जी कहते हैं, बहुत शीघ्रता की। अभी तो पांचवां पर्वत (शिखर) बाकी है। और इतने में ही शनि मेरे पैरों में गिर गए, और कहा' मैं सदैव आपको दिये वचनों को स्मरण रखूंगा।' आघात के उपचार के लिए शनिदेव तेल मांगने लगे। हनुमान जी तेल कहां देने वाले थे। तभी शनि देव ने अपनी पीढा दूर करने को तेल लगाया !और तभी से तेल चड़ने लगा !वही शनिदेव आज भी तेलदान से तुष्ट होते हैं। और खुशियाँ प्रदान करते है !!(पुराण कथा से ).
बुधवार, 26 अप्रैल 2017
पितृ दोष निवारक , पितृसूक्त(ऋग्वेदोक्त)
ऋगवेदके १० वे मण्डलके १५ वे सूक्तकी १-१४ ऋचाएँ 'पितृसूक्त' के नाम से ख्यात हैं । वेदोमें पितृ कृपा और पितृ दोष का विवरण मिलता हैं ।
उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ।।
नीचे, ऊपर और मध्यस्थानोंमें रहनेवाले, सोमपान करनेके योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञके ज्ञाता सौम्य स्वभावके हमारे जिन पितरोंने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।।
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः ।
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु।।
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये है, जो पितर अन्य स्थानोमें हैं और जो उत्तम स्वजनोंके साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णुलोकमें स्थित सभी पितरोंको आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो ।।
आहं पितृन् त्सुविदत्राँ अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः ।।
उत्तम ज्ञानसे युक्त पितरोंको तथा अपानपात् और विष्णुके विक्रमणको मैंने अपने अनुकूल बना लिया है । कुशासनपर बैठनेके अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छाके अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोमरस ग्रहण करें।।
बर्हिषदः पितर ऊत्य१र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम् ।
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात।।
कुशासनपर अधिष्ठित होनेवाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये । यह हवि आपके लिये ही तैयार की गई हैं, इसे प्रेमसे स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुखप्रद प्रसादके साथ आयें और हमें क्लेशरहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।।
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्।।
पितरोंको प्रिय लगनेवाली सोमरुपी निधियोंकी स्थापनाके बाद कुशासनपर हमने पितरोंका आवाहन किया है। वे यहाँ आ जायँ और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी सुरक्षा करनेके साथ ही देवोंके पास हमारी ओर से संस्तुति करें।।
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे ।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम।।
हे पितरो!बायाँ घुटना मोडकर और वेदीके दक्षिणमें नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञकी प्रशंसा करें । मानव-स्वभावके अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड मत दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठनापसन्द करतेहैं)।।
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्र यच्छत त इहोर्जं दधात ।।
अरुणवर्णकी उषादेवीके अंकमें विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्यलोकके याजकको धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्तिमेंसे कुछ अंश हम पुत्रों को दें।।
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्भिः प्रतिकाममत्तु।।
(यमके सोमपानके बाद) सोमपानके योग्य हमारे वसिष्ठकुलके सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करनेके लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हविको अपने इच्छानुसार ग्रहण करें ।।
ये तातृषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कैः।
आग्ने याहि सुविदत्रेभिरर्वाड् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्भिः।।
अनेक प्रकारके हवि-द्रवव्योंके ज्ञानी अर्कोसे, स्तोमोंकी सहायतासे जिन्हें निर्माण किया हैं, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हविके पास बैठनेवाले 'कव्य' नामक हमारे पितर देवलोकमें साँस लगनेकी अवस्थातक प्याससे व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित हों ।।
ये सत्यासो हविरदो हविष्पा इन्द्रेण देवैः सरथं दधानाः।
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परैः पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्भिः।।
कभी न बिछुडनेवाले, ठोस हविका भक्षण करनेवाले, द्रव हविका पान करनेवाले, इन्द्र और अन्य देवोंके साथ एक ही रथमें प्रयाण करनेवाले, देवोंकी वन्दना करनेवाले, घर्म नामक हविके पास बैठनेवाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रकी संख्यामें लेकर हे अग्निदेव!यहाँ पधारें।।
अग्निष्वाताः पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन।।
अग्निके द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ-प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने -अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासनपर समर्पित हविर्द्रव्योंका भक्षण कीजिये और ( अनुग्रहस्वरुप) पुत्रोंसे युक्त सम्पदा हमें समर्पित कराइये।।
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ढव्यानि सुरभीणि कृत्वी।
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि।।
हे ज्ञानी अग्निदेव ! हमारी प्रार्थनापर आप इस हविको मधुर बनाकर पितरोंके पास ले गये, उन्हें पितरोंको समर्पित किया और पितरोंने भी अपनी इच्छाके अनुसार उस हविका भक्षण किया । हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हविको आप भी ग्रहण करें।।
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्म।
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व।।
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये)हैं और जो यहाँ नहीं आये है, जिन्हे हम जानते है और जिन्हे हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभीको, जितने (और जैसे ) हैं, उन सभीको हे अग्निदेव! आप भलीभाँति पहचानते हैं । उन सभीकी इच्छाके अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हविको (उन सभीके लिये) प्रसन्नताके साथ स्वीकार करें।।
ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ।।
हमारे जिन पितरोंको अग्निने पावन किया हैं और जो अग्निद्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृभूत हैं तथा जो अपनी इच्छाके अनुसार स्वर्गके मध्यमें आनन्दसे निवास करते हैं । उन सभीकी अनुमतिसे हे स्वराट् अग्ने ! (पितृलोकमें इस नूतन मृतजीवके) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीरको उसकी इच्छाके अनुसार ही बना दो और उसे दे दो ।।
पितृ प्रसन्नताके लिये व पितृ दोष निवारण के लिए
इस सुक्त के १०८ पाठ करें/करवायें ।।
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उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ।।
नीचे, ऊपर और मध्यस्थानोंमें रहनेवाले, सोमपान करनेके योग्य हमारे सभी पितर उठकर तैयार हों। यज्ञके ज्ञाता सौम्य स्वभावके हमारे जिन पितरोंने नूतन प्राण धारण कर लिये हैं, वे सभी हमारे बुलाने पर आकर हमारी सुरक्षा करें।।
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः ।
ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु।।
जो भी नये अथवा पुराने पितर यहाँ से चले गये है, जो पितर अन्य स्थानोमें हैं और जो उत्तम स्वजनोंके साथ निवास कर रहे हैं अर्थात् यमलोक, मर्त्यलोक और विष्णुलोकमें स्थित सभी पितरोंको आज हमारा यह प्रणाम निवेदित हो ।।
आहं पितृन् त्सुविदत्राँ अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः ।।
उत्तम ज्ञानसे युक्त पितरोंको तथा अपानपात् और विष्णुके विक्रमणको मैंने अपने अनुकूल बना लिया है । कुशासनपर बैठनेके अधिकारी पितर प्रसन्नतापूर्वक आकर अपनी इच्छाके अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोमरस ग्रहण करें।।
बर्हिषदः पितर ऊत्य१र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम् ।
त आ गतावसा शंतमेनाऽथा नः शं योररपो दधात।।
कुशासनपर अधिष्ठित होनेवाले हे पितर! आप कृपा करके हमारी ओर आइये । यह हवि आपके लिये ही तैयार की गई हैं, इसे प्रेमसे स्वीकार कीजिये। अपने अत्यधिक सुखप्रद प्रसादके साथ आयें और हमें क्लेशरहित सुख तथा कल्याण प्राप्त करायें।।
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्।।
पितरोंको प्रिय लगनेवाली सोमरुपी निधियोंकी स्थापनाके बाद कुशासनपर हमने पितरोंका आवाहन किया है। वे यहाँ आ जायँ और हमारी प्रार्थना सुनें। वे हमारी सुरक्षा करनेके साथ ही देवोंके पास हमारी ओर से संस्तुति करें।।
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे ।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम।।
हे पितरो!बायाँ घुटना मोडकर और वेदीके दक्षिणमें नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञकी प्रशंसा करें । मानव-स्वभावके अनुसार हमने आपके विरुद्ध कोई भी अपराध किया हो तो उसके कारण हे पितरो! आप हमें दण्ड मत दें (पितर बायाँ घुटना मोड़कर बैठते हैं और देवता दाहिना घुटना मोड़कर बैठनापसन्द करतेहैं)।।
आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्र यच्छत त इहोर्जं दधात ।।
अरुणवर्णकी उषादेवीके अंकमें विराजित हे पितर! अपने इस मर्त्यलोकके याजकको धन दें, सामर्थ्य दें तथा अपनी प्रसिद्ध सम्पत्तिमेंसे कुछ अंश हम पुत्रों को दें।।
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्भिः प्रतिकाममत्तु।।
(यमके सोमपानके बाद) सोमपानके योग्य हमारे वसिष्ठकुलके सोमपायी पितर यहाँ उपस्थित हो गये हैं। वे हमें उपकृत करनेके लिये सहमत होकर और स्वयं उत्कण्ठित होकर यह राजा यम हमारे द्वारा समर्पित हविको अपने इच्छानुसार ग्रहण करें ।।
ये तातृषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोमतष्टासो अर्कैः।
आग्ने याहि सुविदत्रेभिरर्वाड् सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्भिः।।
अनेक प्रकारके हवि-द्रवव्योंके ज्ञानी अर्कोसे, स्तोमोंकी सहायतासे जिन्हें निर्माण किया हैं, ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासपात्र घर्म नामक हविके पास बैठनेवाले 'कव्य' नामक हमारे पितर देवलोकमें साँस लगनेकी अवस्थातक प्याससे व्याकुल हो गये हैं। उनको साथ लेकर हे अग्निदेव! आप यहाँ उपस्थित हों ।।
ये सत्यासो हविरदो हविष्पा इन्द्रेण देवैः सरथं दधानाः।
आग्ने याहि सहस्त्रं देववन्दैः परैः पूर्वैः पितृभिर्घर्मसद्भिः।।
कभी न बिछुडनेवाले, ठोस हविका भक्षण करनेवाले, द्रव हविका पान करनेवाले, इन्द्र और अन्य देवोंके साथ एक ही रथमें प्रयाण करनेवाले, देवोंकी वन्दना करनेवाले, घर्म नामक हविके पास बैठनेवाले जो हमारे पूर्वज पितर हैं, उन्हें सहस्त्रकी संख्यामें लेकर हे अग्निदेव!यहाँ पधारें।।
अग्निष्वाताः पितर एह गच्छत सदः सदः सदत सुप्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन।।
अग्निके द्वारा पवित्र किये गये हे उत्तम पथ-प्रदर्शक पितर! यहाँ आइये और अपने -अपने आसनों पर अधिष्ठित हो जाइये। कुशासनपर समर्पित हविर्द्रव्योंका भक्षण कीजिये और ( अनुग्रहस्वरुप) पुत्रोंसे युक्त सम्पदा हमें समर्पित कराइये।।
त्वमग्न ईळितो जातवेदो ऽवाड्ढव्यानि सुरभीणि कृत्वी।
प्रादाः पितृभ्यः स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि।।
हे ज्ञानी अग्निदेव ! हमारी प्रार्थनापर आप इस हविको मधुर बनाकर पितरोंके पास ले गये, उन्हें पितरोंको समर्पित किया और पितरोंने भी अपनी इच्छाके अनुसार उस हविका भक्षण किया । हे अग्निदेव! (अब हमारे द्वारा) समर्पित हविको आप भी ग्रहण करें।।
ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्म।
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व।।
जो हमारे पितर यहाँ (आ गये)हैं और जो यहाँ नहीं आये है, जिन्हे हम जानते है और जिन्हे हम अच्छी प्रकार जानते भी नहीं; उन सभीको, जितने (और जैसे ) हैं, उन सभीको हे अग्निदेव! आप भलीभाँति पहचानते हैं । उन सभीकी इच्छाके अनुसार अच्छी प्रकार तैयार किये गये इस हविको (उन सभीके लिये) प्रसन्नताके साथ स्वीकार करें।।
ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ।।
हमारे जिन पितरोंको अग्निने पावन किया हैं और जो अग्निद्वारा भस्मसात् किये बिना ही स्वयं पितृभूत हैं तथा जो अपनी इच्छाके अनुसार स्वर्गके मध्यमें आनन्दसे निवास करते हैं । उन सभीकी अनुमतिसे हे स्वराट् अग्ने ! (पितृलोकमें इस नूतन मृतजीवके) प्राण धारण करने योग्य (उसके) इस शरीरको उसकी इच्छाके अनुसार ही बना दो और उसे दे दो ।।
पितृ प्रसन्नताके लिये व पितृ दोष निवारण के लिए
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शनिवार, 8 अप्रैल 2017
श्री नीलकण्ठ स्तोत्र (किसी भी ग्रह- प्रेत बाधा को दूर करने में सक्षम)
नीलकण्ठ स्तोत्र
विनियोग -
ॐ अस्य श्री भगवान नीलकंठ सदा-शिव-स्तोत्र मंत्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः अनुष्ठुप छन्दः श्री नीलकंठ सदाशिवो देवता ब्रह्म बीजं पार्वती शक्तिः मम समस्त पाप क्षयार्थंक्षे म-स्थै-आर्यु-आरोग्य-अभिवृद्धयर्थं मोक्षादि-चतुर्वर्ग-साधनार्थं च श्री नीलकंठ-सदाशिव-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यास -
श्री ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। श्री नीलकंठ सदाशिव देवतायै नमः हृदि।
ब्रह्म बीजाय नमः लिंगे।
पार्वती शक्त्यैनमः नाभौ।
मम समस्त पाप क्षयार्थंक्षेम-स्थै-आर्यु-आरोग्य-अभिवृद्धयर्थं मोक्षादि-चतुर्वर्ग-साधनार्थंच श्री नीलकंठ-सदाशिव-प्रसाद-सिद्धयर्थे जविनियोगाय नमः सर्वांगे।
स्तोत्रम्
ॐ नमो नीलकंठाय श्वेत-शरीराय सर्पमाला अलंकृत भुजंग परिकराय नागयज्ञो पवीताय अनेक मृत्यु विनाशाय नमः। युग युगांत काल प्रलय-प्रचंडाय प्रज्वाल-मुखाय नमः। दंष्ट्राकराल घोर रूपाय हूं हूं फट् स्वाहा। ज्वालामुखाय मंत्र करालाय प्रचंडार्क सहस्त्रांशु चंडाय नमः। कर्पूर मोद परिमलांगाय नमः।
ॐ इंद्र नील महानील वज्र वैदूर्य मणि माणिक्य मुकुट भूषणाय हन हन हन दहन दहनाय ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोर घोर तनुरूप चट चट प्रचट प्रचट कह कह वम वम बंध बंध घातय घातय हूं फट् जरा मरण भय हूं हूं फट् स्वाहा। आत्म मंत्र संरक्षणाय नम:।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रीं स्फुर अघोर रूपाय रथ रथ तंत्र तंत्र चट् चट् कह कह मद मद दहन दाहनाय ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोर घोर तनुरूप चट चट प्रचट प्रचट कह कह वम वम बंध बंध घातय घातय हूं फट् जरा मरण भय हूं हूं फट् स्वाहा।
अनंताघोर ज्वर मरण भय क्षय कुष्ठ व्याधि विनाशाय, शाकिनी डाकिनी ब्रह्मराक्षस दैत्य दानव बंधनाय, अपस्मार भूत बैताल डाकिनी शाकिनी सर्व ग्रह विनाशाय मंत्र कोटि प्रकटाय पर विद्योच्छेदनाय हूं हूं फट् स्वाहा। आत्म मंत्र सरंक्षणाय नमः।
ॐ ह्रां ह्रीं हौं नमो भूत डामरी ज्वालवश भूतानां द्वादश भू तानांत्रयो दश षोडश प्रेतानां पंच दश डाकिनी शाकिनीनां हन हन। दहन दारनाथ! एकाहिक द्वयाहिक त्र्याहिक चातुर्थिक पंचाहिक व्याघ्य पादांत वातादि वात सरिक कफ पित्तक काश श्वास श्लेष्मादिकं दह दह छिन्धि छिन्धि श्रीमहादेव निर्मित स्तंभन मोहन वश्याकर्षणोच्चाटन कीलना द्वेषण इति षट् कर्माणि वृत्य हूं हूं फट् स्वाहा।
वात-ज्वर मरण-भय छिन्न छिन्न नेह नेह भूतज्वर प्रेतज्वर पिशाचज्वर रात्रिज्वर शीतज्वर तापज्वर बालज्वर कुमारज्वर अमितज्वर दहनज्वर ब्रह्मज्वर विष्णुज्वर रूद्रज्वर मारीज्वर प्रवेशज्वर कामादि विषमज्वर ज्वर प्रचण्ड घराय प्रमथेश्वर! शीघ्रं हूं हूं फट् स्वाहा।
।।ॐ नमो नीलकंठाय, दक्षज्वर ध्वंसनाय श्री नीलकंठाय नमः।।
।।इतिश्री नीलकंठ स्तोत्रम संपूर्ण ।।
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शनिवार, 1 अप्रैल 2017
श्री मातंगी कवच
श्रीदेव्युवाच ।।
साधु-साधु महादेव ! कथयस्व सुरेश्वर !
मातंगी-कवचं दिव्यं, सर्व-सिद्धि-करं नृणाम् ।।
श्री-देवी ने कहा – हे महादेव ! हे सुरेश्वर ! मनुष्यों को सर्व-सिद्धि-प्रद दिव्य मातंगी-कवच अति उत्तम है, उस कवच को मुझसे कहिए ।
।। श्री ईश्वर उवाच ।।
श्रृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि, मातंगी-कवचं शुभं ।
गोपनीयं महा-देवि ! मौनी जापं समाचरेत् ।।
ईश्वर ने कहा – हे देवि ! उत्तम मातंगी-कवच कहता हूँ, सुनो । हे महा-देवि ! इस कवच को गुप्त रखना, मौनी होकर जप करना ।
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीमातंगी-कवचस्य श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषिः । विराट् छन्दः । श्रीमातंगी देवता । चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः-
श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषये नमः शिरसि ।
विराट् छन्दसे नमः मुखे ।
श्रीमातंगी देवतायै नमः हृदि ।
चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
।। कवच ।।
ॐ शिरो मातंगिनी पातु, भुवनेशी तु चक्षुषी ।
तोडला कर्ण-युगलं, त्रिपुरा वदनं मम ।।
पातु कण्ठे महा-माया, हृदि माहेश्वरी तथा ।
त्रि-पुष्पा पार्श्वयोः पातु, गुदे कामेश्वरी मम ।।
ऊरु-द्वये तथा चण्डी, जंघयोश्च हर-प्रिया ।
महा-माया माद-युग्मे, सर्वांगेषु कुलेश्वरी ।।
अंग प्रत्यंगकं चैव, सदा रक्षतु वैष्णवी ।
ब्रह्म-रन्घ्रे सदा रक्षेन्, मातंगी नाम-संस्थिता ।।
रक्षेन्नित्यं ललाटे सा, महा-पिशाचिनीति च ।
नेत्रयोः सुमुखी रक्षेत्, देवी रक्षतु नासिकाम् ।।
महा-पिशाचिनी पायान्मुखे रक्षतु सर्वदा ।
लज्जा रक्षतु मां दन्तान्, चोष्ठौ सम्मार्जनी-करा ।।
चिबुके कण्ठ-देशे च, ठ-कार-त्रितयं पुनः ।
स-विसर्ग महा-देवि ! हृदयं पातु सर्वदा ।।
नाभि रक्षतु मां लोला, कालिकाऽवत् लोचने ।
उदरे पातु चामुण्डा, लिंगे कात्यायनी तथा ।।
उग्र-तारा गुदे पातु, पादौ रक्षतु चाम्बिका ।
भुजौ रक्षतु शर्वाणी, हृदयं चण्ड-भूषणा ।।
जिह्वायां मातृका रक्षेत्, पूर्वे रक्षतु पुष्टिका ।
विजया दक्षिणे पातु, मेधा रक्षतु वारुणे ।।
नैर्ऋत्यां सु-दया रक्षेत्, वायव्यां पातु लक्ष्मणा ।
ऐशान्यां रक्षेन्मां देवी, मातंगी शुभकारिणी ।।
रक्षेत् सुरेशी चाग्नेये, बगला पातु चोत्तरे ।
ऊर्घ्वं पातु महा-देवि ! देवानां हित-कारिणी ।।
पाताले पातु मां नित्यं, वशिनी विश्व-रुपिणी ।
प्रणवं च ततो माया, काम-वीजं च कूर्चकं ।।
मातंगिनी ङे-युताऽस्त्रं, वह्नि-जायाऽवधिर्पुनः ।
सार्द्धेकादश-वर्णा सा, सर्वत्र पातु मां सदा ।।
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मंगलवार, 28 मार्च 2017
ब्रह्मास्त्र महा विद्या श्रीबगलामुखी स्तोत्र
ब्रह्मास्त्र महाविद्या श्रीबगलामुखी स्तोत्र(रुद्रयामल तंत्र)
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीब्रह्मास्त्र-महा-विद्या-श्रीबगला-मुखी स्तोत्रस्य श्रीनारद ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री बगला-मुखी देवता, ‘ह्ल्रीं’ बीजं, ‘स्वाहा’ शक्तिः, ‘बगला-मुखि’ कीलकं, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-गतीनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं पाठे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीनारद ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्री बगला-मुखी देवतायै नमः हृदि, ‘ह्ल्रीं’ बीजाय नमः गुह्ये, ‘स्वाहा’ शक्त्यै नमः नाभौ, ‘बगला-मुखि’ कीलकाय नमः पादयोः, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-गतीनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं पाठे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास
ह्ल्रां ॐ ह्ल्रीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ह्ल्रीं बगलामुखि तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ह्ल्रूं सर्व-दुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ह्ल्रैं वाचं मुखं पदं स्तम्भय अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं
ह्ल्रौं जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ह्ल्रः बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं ॐ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
-:ध्यानः-
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्याम्,
सिंहासनोपरि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीम्,
देवीं नमामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।। १
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीम्,
वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाऽभिघातेन च दक्षिणेन,
पीताम्बराढ्यां द्वि-भुजां नमामि ।। २
स्तोत्र
चलत्-कनक-कुण्डलोल्लसित-चारु-गण्ड-स्थलीम्,
लसत्-कनक-चम्पक-द्युतिमदिन्दु-बिम्बाननाम् ।
गदा-हत-विपक्षकां कलित-लोल-जिह्वाऽञ्चलाम्,
स्मरामि बगला-मुखीं विमुख-वाङ्-मनस-स्तम्भिनीम् ।। १
पीयूषोदधि-मध्य-चारु-विलसद्-रत्नोज्जवले मण्डपे,
तत्-सिंहासन-मूल-पतित-रिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।
स्वर्णाभां कर-पीडितारि-रसनां भ्राम्यद् गदां विभ्रतीम्,
यस्त्वां ध्यायति यान्ति तस्य विलयं सद्योऽथ सर्वापदः ।। २
देवि ! त्वच्चरणाम्बुजार्च-कृते यः पीत-पुष्पाञ्जलिम्,
भक्त्या वाम-करे निधाय च मनुं मन्त्री मनोज्ञाक्षरम् ।
पीठ-ध्यान-परोऽथ कुम्भक-वशाद् बीजं स्मरेत् पार्थिवम्,
तस्यामित्र-मुखस्य वाचि हृदये जाड्यं भवेत् तत्क्षणात् ।। ३
वादी मूकति रंकति क्षिति-पतिर्वैश्वानरः शीतति,
क्रोधी शाम्यति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।
गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जडति त्वन्मन्त्रिणा यन्त्रितः,
श्री-नित्ये, बगला-मुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। ४
मन्त्रस्तावदलं विपक्ष-दलने स्तोत्रं पवित्रं च ते,
यन्त्रं वादि-नियन्त्रणं त्रि-जगतां जत्रं च चित्रं च ते ।
मातः ! श्रीबगलेति नाम ललितं यस्यास्ति जन्तोर्मुखे,
त्वन्नाम-स्मरणेन संसदि मुख-स्तम्भो भवेद् वादिनाम् ।। ५
दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्र्य-विद्रावणम्,
भूभृत्-सन्दमनं चलन्मृग-दृशां चेतः समाकर्षणम् ।
सौभाग्यैक-निकेतनं सम-दृश कारुण्य-पूर्वेक्षणम्,
मृत्योर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयं वपुः ।। ६
ृ
मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वां च संकीलय,
ब्राह्मीं मुद्रय दैत्य-देव-धिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।
शत्रूंश्चूर्णय देवि ! तीक्ष्ण-गदया गौरांगि, पीताम्बरे !
विघ्नौघं बगले ! हर प्रणमतां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ! ।।
मातर्भैरवि ! भद्र-कालि विजये ! वाराहि ! विश्वाश्रये !
श्रीविद्ये ! समये ! महेशि ! बगले ! कामेशि ! वामे रमे !
मातंगि ! त्रिपुरे ! परात्पर-तरे ! स्वर्गापवर्ग-प्रदे !
दासोऽहं शरणागतः करुणया विश्ववेश्वरि ! त्राहि माम् ।। ८
त्वं विद्या परमा त्रिलोक-जननी विघ्नौघ-संच्छेदिनी,
योषाकर्षण-कारिणि पशु-मनः-सम्मोह-सम्वर्द्धिनी ।
दुष्टोच्चाटन-कारिणी पशु-मनः-सम्मोह-सन्दायिनी,
जिह्वा-कीलन-भैरवी विजयते ब्रह्मास्त्र-विद्या परा ।। ९
विद्या-लक्ष्मीर्नित्य-सौभाग्यमायुः,
पुत्रैः पौत्रैः सर्व-साम्राज्य-सिद्धिः ।
मानं भोगो वश्यमारोग्य-सौख्यम्,
प्राप्तं सर्वं भू-तले त्वत्-परेण ।। १०
पीताम्बरां द्वि-भुजां च, त्रि-नेत्रां गात्र-कोमलाम् ।
शिला-मुद्-गर-हस्तां च, स्मरामि बगला-मुखीम् ।। ११
पीत-वस्त्र-लसितामरि-देह-प्रेत-वासन-निवेशित-देहाम्,
फुल्ल-पुष्प-रवि-लोचन-रम्यां दैत्य-जाल-दहनोज्जवल-भूषां ।
पर्यंकोपरि-लसद्-द्विभुजां कम्बु-जम्बु-नद-कुण्डल-लोलाम्,
वैरि-निर्दलन-कारण-रोषां चिन्तयामि बगलां हृदयाब्जे ।। १२
गेहं नाकति, गर्वितः प्रणमति, स्त्री-संगमो मोक्षति,
द्वेषी मित्रति, पातकं सु-कृतति, क्ष्मा-वल्लभो दासति ।
मृत्युर्वैद्यति, दूषण सु-गुणति, त्वत्-पाद-संसेवनात्,
वन्दे त्वां भव-भीति-भञ्जन-करीं गौरीं गिरीश-प्रियाम् ।। १३
आराध्या जदम्ब ! दिव्य-कविभिः सामाजिकैः स्तोतृभि-
र्माल्यैश्चन्दन-कुंकुमैः परिमलैरभ्यर्च्चिता सादरात् ।
सम्यङ्-न्यासि-समस्त-निवहे, सौभाग्य-शोभा-प्रदे !
श्रीमुग्धे बगले ! प्रसीद विमले, दुःखापहे ! पाहि माम् ।। १४
यत्-कृतं जप-सन्नाहं, गदितं परमेश्वरि !
दुष्टानां निग्रहार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। १५
सिद्धिं साध्येऽवगन्तुं गुरु-वर-वचनेष्वार्ह-विश्वास-भाजाम्,
स्वान्तः पद्मासनस्थां वर-रुचि-बगलां ध्यायतां तार-तारम् ।
गायत्री-पूत-वाचां हरि-हर-नमने तत्पराणां नराणाम्,
प्रातर्मध्याह्न-काले स्तव-पठनमिदं कार्य-सिद्धि-प्रदं स्यात् ।। १६
विद्या लक्ष्मीः सर्व-सौभाग्यमायुः,
पुत्रैः पौत्रौः सर्व-साम्राज्य-सिद्धिः ।
मानं भोगो वश्यमारोग्य-सौख्यम्,
प्राप्तं सर्वं भू-तले त्वत्-परेण ।। १७
यत्-कृतं जप-संध्यानं, चिन्तनं परमेश्वरि !
शत्रूणां स्तम्भनार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। १८
।। फल-श्रुति ।।
नित्यं स्तोत्रमिदं पवित्रमिह यो देव्याः पठत्यादरात्,
धृत्वा यन्त्रमिदं तथैव समरे बाहौ करे वा गले ।
राजानोऽप्यरयो मदान्ध-करिणः सर्पा मृगेन्द्रादिकाः,
ते वै यान्ति विमोहिता रिपु-गणा लक्ष्मोः स्थिरा सर्वदा ।। १
संरम्भे चौर-संघे प्रहरण-समये बन्धने व्याधि-मध्ये,
विद्या-वादे विवादे प्रकुपित-नृपतौ दिव्य-काले निशायाम् ।
वश्ये वा स्तम्भने वा रिपु-वध-समये निर्जने वा वने वा,
गच्छँस्तिषठँस्त्रि-कालं यदि पठति शिवं प्राप्नुयादाशु धीरः ।। २
अनुदिनमभिरामं साधको यस्त्रि-कालम्,
पठति स भुवनेऽसौ पूज्यते देव-वर्गैः ।
सकलममल-कृत्यं तत्त्व-द्रष्टा च लोके,
भवति परम-सिद्धा लोक-माता पराम्बा ।। ३
ब्रह्मास्त्रमिति विख्यातं, त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
गुरु-भक्ताय दातव्यं, न देयं यस्य कस्यचित् ।। ४
।। श्रीरुद्रयामले उत्तर-खण्डे श्रीब्रह्मास्त्र-विद्या श्रीबगला-मुखी स्तोत्रम् ।।
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विनियोगः- ॐ अस्य श्रीब्रह्मास्त्र-महा-विद्या-श्रीबगला-मुखी स्तोत्रस्य श्रीनारद ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री बगला-मुखी देवता, ‘ह्ल्रीं’ बीजं, ‘स्वाहा’ शक्तिः, ‘बगला-मुखि’ कीलकं, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-गतीनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं पाठे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीनारद ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे, श्री बगला-मुखी देवतायै नमः हृदि, ‘ह्ल्रीं’ बीजाय नमः गुह्ये, ‘स्वाहा’ शक्त्यै नमः नाभौ, ‘बगला-मुखि’ कीलकाय नमः पादयोः, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-गतीनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं पाठे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास
ह्ल्रां ॐ ह्ल्रीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ह्ल्रीं बगलामुखि तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ह्ल्रूं सर्व-दुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ह्ल्रैं वाचं मुखं पदं स्तम्भय अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं
ह्ल्रौं जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ह्ल्रः बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं ॐ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
-:ध्यानः-
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्याम्,
सिंहासनोपरि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीम्,
देवीं नमामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।। १
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीम्,
वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाऽभिघातेन च दक्षिणेन,
पीताम्बराढ्यां द्वि-भुजां नमामि ।। २
स्तोत्र
चलत्-कनक-कुण्डलोल्लसित-चारु-गण्ड-स्थलीम्,
लसत्-कनक-चम्पक-द्युतिमदिन्दु-बिम्बाननाम् ।
गदा-हत-विपक्षकां कलित-लोल-जिह्वाऽञ्चलाम्,
स्मरामि बगला-मुखीं विमुख-वाङ्-मनस-स्तम्भिनीम् ।। १
पीयूषोदधि-मध्य-चारु-विलसद्-रत्नोज्जवले मण्डपे,
तत्-सिंहासन-मूल-पतित-रिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।
स्वर्णाभां कर-पीडितारि-रसनां भ्राम्यद् गदां विभ्रतीम्,
यस्त्वां ध्यायति यान्ति तस्य विलयं सद्योऽथ सर्वापदः ।। २
देवि ! त्वच्चरणाम्बुजार्च-कृते यः पीत-पुष्पाञ्जलिम्,
भक्त्या वाम-करे निधाय च मनुं मन्त्री मनोज्ञाक्षरम् ।
पीठ-ध्यान-परोऽथ कुम्भक-वशाद् बीजं स्मरेत् पार्थिवम्,
तस्यामित्र-मुखस्य वाचि हृदये जाड्यं भवेत् तत्क्षणात् ।। ३
वादी मूकति रंकति क्षिति-पतिर्वैश्वानरः शीतति,
क्रोधी शाम्यति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।
गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जडति त्वन्मन्त्रिणा यन्त्रितः,
श्री-नित्ये, बगला-मुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। ४
मन्त्रस्तावदलं विपक्ष-दलने स्तोत्रं पवित्रं च ते,
यन्त्रं वादि-नियन्त्रणं त्रि-जगतां जत्रं च चित्रं च ते ।
मातः ! श्रीबगलेति नाम ललितं यस्यास्ति जन्तोर्मुखे,
त्वन्नाम-स्मरणेन संसदि मुख-स्तम्भो भवेद् वादिनाम् ।। ५
दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्र्य-विद्रावणम्,
भूभृत्-सन्दमनं चलन्मृग-दृशां चेतः समाकर्षणम् ।
सौभाग्यैक-निकेतनं सम-दृश कारुण्य-पूर्वेक्षणम्,
मृत्योर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयं वपुः ।। ६
ृ
मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वां च संकीलय,
ब्राह्मीं मुद्रय दैत्य-देव-धिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।
शत्रूंश्चूर्णय देवि ! तीक्ष्ण-गदया गौरांगि, पीताम्बरे !
विघ्नौघं बगले ! हर प्रणमतां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ! ।।
मातर्भैरवि ! भद्र-कालि विजये ! वाराहि ! विश्वाश्रये !
श्रीविद्ये ! समये ! महेशि ! बगले ! कामेशि ! वामे रमे !
मातंगि ! त्रिपुरे ! परात्पर-तरे ! स्वर्गापवर्ग-प्रदे !
दासोऽहं शरणागतः करुणया विश्ववेश्वरि ! त्राहि माम् ।। ८
त्वं विद्या परमा त्रिलोक-जननी विघ्नौघ-संच्छेदिनी,
योषाकर्षण-कारिणि पशु-मनः-सम्मोह-सम्वर्द्धिनी ।
दुष्टोच्चाटन-कारिणी पशु-मनः-सम्मोह-सन्दायिनी,
जिह्वा-कीलन-भैरवी विजयते ब्रह्मास्त्र-विद्या परा ।। ९
विद्या-लक्ष्मीर्नित्य-सौभाग्यमायुः,
पुत्रैः पौत्रैः सर्व-साम्राज्य-सिद्धिः ।
मानं भोगो वश्यमारोग्य-सौख्यम्,
प्राप्तं सर्वं भू-तले त्वत्-परेण ।। १०
पीताम्बरां द्वि-भुजां च, त्रि-नेत्रां गात्र-कोमलाम् ।
शिला-मुद्-गर-हस्तां च, स्मरामि बगला-मुखीम् ।। ११
पीत-वस्त्र-लसितामरि-देह-प्रेत-वासन-निवेशित-देहाम्,
फुल्ल-पुष्प-रवि-लोचन-रम्यां दैत्य-जाल-दहनोज्जवल-भूषां ।
पर्यंकोपरि-लसद्-द्विभुजां कम्बु-जम्बु-नद-कुण्डल-लोलाम्,
वैरि-निर्दलन-कारण-रोषां चिन्तयामि बगलां हृदयाब्जे ।। १२
गेहं नाकति, गर्वितः प्रणमति, स्त्री-संगमो मोक्षति,
द्वेषी मित्रति, पातकं सु-कृतति, क्ष्मा-वल्लभो दासति ।
मृत्युर्वैद्यति, दूषण सु-गुणति, त्वत्-पाद-संसेवनात्,
वन्दे त्वां भव-भीति-भञ्जन-करीं गौरीं गिरीश-प्रियाम् ।। १३
आराध्या जदम्ब ! दिव्य-कविभिः सामाजिकैः स्तोतृभि-
र्माल्यैश्चन्दन-कुंकुमैः परिमलैरभ्यर्च्चिता सादरात् ।
सम्यङ्-न्यासि-समस्त-निवहे, सौभाग्य-शोभा-प्रदे !
श्रीमुग्धे बगले ! प्रसीद विमले, दुःखापहे ! पाहि माम् ।। १४
यत्-कृतं जप-सन्नाहं, गदितं परमेश्वरि !
दुष्टानां निग्रहार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। १५
सिद्धिं साध्येऽवगन्तुं गुरु-वर-वचनेष्वार्ह-विश्वास-भाजाम्,
स्वान्तः पद्मासनस्थां वर-रुचि-बगलां ध्यायतां तार-तारम् ।
गायत्री-पूत-वाचां हरि-हर-नमने तत्पराणां नराणाम्,
प्रातर्मध्याह्न-काले स्तव-पठनमिदं कार्य-सिद्धि-प्रदं स्यात् ।। १६
विद्या लक्ष्मीः सर्व-सौभाग्यमायुः,
पुत्रैः पौत्रौः सर्व-साम्राज्य-सिद्धिः ।
मानं भोगो वश्यमारोग्य-सौख्यम्,
प्राप्तं सर्वं भू-तले त्वत्-परेण ।। १७
यत्-कृतं जप-संध्यानं, चिन्तनं परमेश्वरि !
शत्रूणां स्तम्भनार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। १८
।। फल-श्रुति ।।
नित्यं स्तोत्रमिदं पवित्रमिह यो देव्याः पठत्यादरात्,
धृत्वा यन्त्रमिदं तथैव समरे बाहौ करे वा गले ।
राजानोऽप्यरयो मदान्ध-करिणः सर्पा मृगेन्द्रादिकाः,
ते वै यान्ति विमोहिता रिपु-गणा लक्ष्मोः स्थिरा सर्वदा ।। १
संरम्भे चौर-संघे प्रहरण-समये बन्धने व्याधि-मध्ये,
विद्या-वादे विवादे प्रकुपित-नृपतौ दिव्य-काले निशायाम् ।
वश्ये वा स्तम्भने वा रिपु-वध-समये निर्जने वा वने वा,
गच्छँस्तिषठँस्त्रि-कालं यदि पठति शिवं प्राप्नुयादाशु धीरः ।। २
अनुदिनमभिरामं साधको यस्त्रि-कालम्,
पठति स भुवनेऽसौ पूज्यते देव-वर्गैः ।
सकलममल-कृत्यं तत्त्व-द्रष्टा च लोके,
भवति परम-सिद्धा लोक-माता पराम्बा ।। ३
ब्रह्मास्त्रमिति विख्यातं, त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
गुरु-भक्ताय दातव्यं, न देयं यस्य कस्यचित् ।। ४
।। श्रीरुद्रयामले उत्तर-खण्डे श्रीब्रह्मास्त्र-विद्या श्रीबगला-मुखी स्तोत्रम् ।।
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गुरुवार, 23 मार्च 2017
(विनायक रुष्ट होने पर कष्ट श्री कृष्ण द्वारा वर्णित ,,,,,,श्लोक३/४ अध्याय १४४ उत्तर पर्व, भविष्य पुराण )
(विनायक रुष्ट होने पर कष्ट,,,,,,श्लोक३/४ अध्याय १४४ उत्तर पर्व, भविष्य )
स्वप्न में जल में डूबना , मुंडित सिरों को देखना ,गेरुआ वस्त्र , मस्तक रहित सिर देखना बिना किसी कारण खुद का रोना/दुखी देखना,
यह स्वप्न विनायक द्वारा गृहीत होने पर दिखते हैं,(पहचान है).||
विनायक द्वारा गृहीत होने पर ,
राजपुत्र भी राज्य प्राप्त नहीं कर पाता
कुमारी पति को प्राप्त नहीं कर पाती
गर्भ होने पर भी पुत्र प्राप्त न होना.
व्यापारी व्यापार में लाभ न सफल होगा.
योग्य होने पर भी आजीविका कार्य (नौकरी) न मिलना
इसका उपाय भी भविष्य पुराण में वर्णित है , कि किस प्रकार हम एक अनुष्ठान करें
पहले गणेश जी का विधानानुसार पूजन फिर अभिमन्त्रित जल से यजमान का अभिषेक करें
तत्पश्चात कुशा को दाहिने हाथ में धारण करके सरसों तेल से हवन करें
इसके पश्चात बलि नैवेद्य अर्पण करके मण्ल पर अर्ध्य दें , तत्पश्चात पुन: माता अम्बिका की राजोपचार विधि से पूजन करें , ब्राह्मणों को भोजन करायें ,
गुरु जी को
(क्युकि इस पूजन के बाद गुरु का आशीर्वाद आवश्यक है, यदि गुरु तक किसी कारण वश आप न पहुँच सकें तो फिर महादेव का पूजन कर ) वस्त्र फल दक्षिणा अर्पण करें.
इस पूजन से , सभी बाधाएँ नष्ट होती हैं , मनुष्य लक्ष्मी प्राप्त करता है.
धन्यवाद
(यदि आप कापी पेस्ट करते हैं तो कृपया सूचना देकर करें)
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स्वप्न में जल में डूबना , मुंडित सिरों को देखना ,गेरुआ वस्त्र , मस्तक रहित सिर देखना बिना किसी कारण खुद का रोना/दुखी देखना,
यह स्वप्न विनायक द्वारा गृहीत होने पर दिखते हैं,(पहचान है).||
विनायक द्वारा गृहीत होने पर ,
राजपुत्र भी राज्य प्राप्त नहीं कर पाता
कुमारी पति को प्राप्त नहीं कर पाती
गर्भ होने पर भी पुत्र प्राप्त न होना.
व्यापारी व्यापार में लाभ न सफल होगा.
योग्य होने पर भी आजीविका कार्य (नौकरी) न मिलना
इसका उपाय भी भविष्य पुराण में वर्णित है , कि किस प्रकार हम एक अनुष्ठान करें
पहले गणेश जी का विधानानुसार पूजन फिर अभिमन्त्रित जल से यजमान का अभिषेक करें
तत्पश्चात कुशा को दाहिने हाथ में धारण करके सरसों तेल से हवन करें
इसके पश्चात बलि नैवेद्य अर्पण करके मण्ल पर अर्ध्य दें , तत्पश्चात पुन: माता अम्बिका की राजोपचार विधि से पूजन करें , ब्राह्मणों को भोजन करायें ,
गुरु जी को
(क्युकि इस पूजन के बाद गुरु का आशीर्वाद आवश्यक है, यदि गुरु तक किसी कारण वश आप न पहुँच सकें तो फिर महादेव का पूजन कर ) वस्त्र फल दक्षिणा अर्पण करें.
इस पूजन से , सभी बाधाएँ नष्ट होती हैं , मनुष्य लक्ष्मी प्राप्त करता है.
धन्यवाद
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